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________________ अकुण्ठित औलुक्य और जिज्ञासा से वे आगे बढ़ते ही गये। पर्वत के अन्तः प्रदेशों में जहाँ तक मार्ग जाता है, वे चले जाते हैं; और छोर पर जाकर किसी निभृत एकान्त में वे पाते हैं-सुर पुन्नाग के अँधियारे बनतल में झरी हुई पराग बिछी है, स्वर्ण को रज-सी दीप्त। किंस विजनवती ने किस अनागत प्रवासी के लिए यह पराग की सौरभ शय्या जाने कब से विछा रखी हैं? क्या वह प्रवासी कभी न आया और कभी न आएगा और क्या यह आसार अनन्त काल तक यों ही निरर्थक चलता रहेगा? वन के अँधियारे विवरों में कुमार धँसते ही चले जा रहे हैं, मानो द्वार के बाद द्वार पार कर रहे हैं। ऐसें अनेक नैसर्गिक पुष्पकुंजों के तले पराग और कुसुमों की ऊष्म और शीतल शय्याएँ बिछी हैं। इस निभृत की वह चिर प्रतीक्षमाणा बाला किस निगूढ़ पर्वत- गुफा में एकान्त वास कर रही है? अनेक बसन्त रात्रियों के सुरभित उच्छ्वास वहाँ शून्य और विफल हो गये हैं । कहाँ छिपा है इस चिर दिन की विच्छेद कथा का रहस्य ? उपत्यका के दोनों और आकाश भेदी पर्वत प्राचीरें खड़ी हैं। बीच के संकीर्ण पथ में से पवनंजय चले जा रहे हैं, कि अचानक ऊपर के खुले आकाश को देखने के लिए उन्होंने गर्दन उठायी। उन्होंने देखा एक ओर के पर्वत श्रृंग की एक चट्टान ज़रा आगे को झुक आयी है और उस पर खड़ा हैं एक श्वेत प्रस्तर का छोटा-सा मन्दिर आस-पास उसके घास और संकुल झाड़ियाँ उगी हैं। द्वार उसका रुद्ध है, और वहाँ तक जाने के लिए राह कहीं नहीं है। मन्दिर के श्वेत गुम्बद पर सान्ध्य सूर्य की एक रक्तिम किरण ठहरी है।... अरे, कौन है वह अभागा देवता, जो इस अरण्य की सुनसान और भयानक गुंजानता में कपाट रुद्ध कर समाधिस्थ हो गया है क्यों उत्त उत्कट ऊँचाई पर जाकर यह अपने ही आत्मसंक्लेश में बन्दी हो गया है? उस अज्ञात देवता की विषम पीड़ा, पवनंजय के बक्ष में जैसे कसमसा उठी । और उसे लगा कि ये दोनों ओर की पर्वत प्राचीरें अभी-अभी मिल जाएँगी, और यह अभी एक अतलान्त अन्धकार की तह में सदा के लिए विसर्जित हो जाएगा। पवनंजय द्रुतगति से झपटते हुए बढ़ चले। जल- तरंगों से आई पवन का स्पर्श पाकर वे आश्वस्त हो गये। थोड़ी ही देर में वे मानसरोवर के एक विजन तट पर आ निकले। उन्हें लगा कि एक पूरी परिक्रमा ही कर आये हैं। झील के सुदूर पूर्व तट पर दीख रहा है वह सैन्य का शिविर। यह तट सर्वधा अपरिचित और एकान्त है। सामने झील के पश्चिमी किनारे पर जो गुफाओं की श्रेणी है, उनमें से विपुल अन्धकार झाँक रहा है। उनके शीर्ष पर की झाड़ियों में अस्तगामी सूर्य की लाल किरणें झर रही हैं। जल-तरंगों के नीलमी कुहासे में दीख रहा है वह गुफाओं का राशि राशि अन्धकार और उसके सम्मुख फैली है यह जल-विस्तार की प्रशान्त विजनता | कौन योगी मौन और आत्मविस्तृत होकर सहस्वावधि वर्षों से इस अन्धकार की श्रृंखलाओं में बँधा इन गुफाओं के पापाणों में जड़ीभूत हो गया है। किस 1 गुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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