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________________ तोत्र पुण्य बांधकर, इस मिथ्या महत्ता और अभिमान का पोषण नहीं करना है। इस अज्ञान के विरुद्ध हमें बड़ना होगा... "...सबके सुख-दुख अपने-अपने पुण्य-पाप के अधीन हैं- कहकर अपने स्वार्थ में बन्द और लिप्त हो रहने को छुट्टो हमें नहीं है। जिस कर्म में हमारी आसक्ति नहीं होगी-उसका बन्ध हमारी भात्मा में नहीं होगा। तब वह शुभ कर्म हमें बन्धन से मुक्त करेगा और सर्व के कल्याण और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा। इसी ले कहती हूँ जीजी, कि हमारे पाप-पुण्यों के ये मानाभिमान मानव-मानव, प्राणी-प्राणी के बीच नहीं आने चाहिए। जो व्यक्तियों के उदयागत पाप-पुण्य हैं, उन्हें हम अचल मानकर नहीं चल सकते, उससे समाज का कोई शाश्वत नियम-विधान नहीं बन सकता। हम किसी के पाप-पण्यों के निर्णायक नहीं हो सकते। जो उदयागत पुण्य हमारी आत्मा के प्रेमगुण का घात कर रहा है, उससे जीवन का सिंगार नहीं किया जा सकता। वह पुण्य-फल फेंक देने योग्य है...और यदि हो सके तो उसे बाँट देना चाहिए, सबका बना देना चाहिए। तब उस बन्धन से मुक्ति मिल जाएगी। पुण्य के दुरभिमान में मत्त होकर मनुष्य प्रायः नवीन दुर्धर्ष पापकर्मों का बन्ध करना है तो वह पुण्य पूजा करने की चीज़ नहीं है-वह हेय है-तिरस्कार्य हैं । भरत चक्रवर्ती का जड़ पुण्य-फल चक्र ठेलने पर भी बाहुबलि के पास न गया, पर भरत की आत्मा बाहुबलि के चरणों में जा पड़ी! चक्रवर्ती का प्रेम उसके चक्र-रत्न से बाधित न हो सका। यह है उस पुण्य का मूल्य जीजी, जिस पर हम अपने कुल, शील, मर्यादा लोकाचार और सदाचार के मूल्य निर्धारित करते हैं। इस अज्ञान के अमांगलिक पाश को तोड़कर ही चलना होगा, जीजी! उसके प्रति हम निष्क्रिय आत्मार्पण नहीं कर सकते। उसके विरुद्ध अनिरुद्ध खड़े रहकर हमें लड़ना होगा। उस राह में होनेवाले प्रहारों को अचल रहकर, विनयपूर्वक, समभाव से सहन करना होगा।...और आवश्यकता पड़ने पर निर्मम भी होना पड़ेगा। परिजनों के मिथ्या दुख का मोह मो, हमारी करुणा को उकसाकर, हमें पथच्युत कर सकता है। पर, वह कर्तव्य-पालन नहीं है, वह पराभव है। अहिंसा का अर्थ दुर्बल की दया नहीं है!" ___ “पर तुम्हारे दुख से महादेवी का दुख अलग नहीं है, बहन। इस योर आपद-काल में वे तुम्हारा ही मुँह देखकर जीना चाहती हैं और तुम्हारे दुखो मन के लिए भी उनकी गोद ही एकमात्र आश्रय है।" "...दुख को बहुत पाल चुकी हूँ, जीजी। रत्नकूट-प्रासाद के उत्त ऐश्वर्य कक्ष में, असंख्य रातें अपने अकेलेपन में रो-रोकर बिता दी हैं। पर रुदन के वे दिन अब नहीं रहे, जीजी । उस रुदन से मैं जीवन का सिंगार न कर सकी! लगा कि आत्मा की अवमानना हो रही है-लगा कि मृत्यु का वरण कर रही हूँ। मैं आत्मघात न कर सकी। आत्मघात में से क्या उन्हें पा सकती थी? प्रेम मृत्यु नहीं है--जीवन है। प्रेम निष्क्रिय आत्म-क्षय नहीं है, वह अनासक्त योग है-वह प्रवाह है। शरण उन्हीं चरणों HA :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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