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________________ हैं? तब निरर्थक है यह कर्मों के नाश की चर्चा !... असल में विपर्यय यह हो गया हैं कि अपने स्वार्थी के वशीभूत हो हमने जड़ सत्ता का प्रभुत्व मान लिया है। परमार्थ और मुक्ति को भी हमने उसी के हाथों सौंप दिया है। उसी की आड़ में मनुष्य के द्वारा मनुष्य कर पीड़न कर व्यापर अतल रहा है। उस पीड़न को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है। पीड़ित बन गया है मात्र उस यन्त्र का एक अचेतन पुरजा । कोटि-कोटि जीवनों को अचेतन बनाने का अपराध हम प्रतिदिन कर रहे हैं। पाप का यह बृहदाकार स्तूप खड़ा कर उसे ही पुण्य का देवता कहकर हम उसकी पूजा कर रहे हैं। हमारा सारा पुरुषार्थ और प्रतिभा खर्च हो रही है उसी स्वार्थ के पोषण के लिए, जो उस जड़ सत्ता की परम्परा को बलवान बनाता है। "... असल में लोक-जीवन में यह जो स्वार्थ का मूल्य राज मार्ग बनकर प्रतिष्ठित हो गया है, उसी मूल्य का उच्छेद करना होगा। स्वार्थ का अर्थ ही बदल 'देना होगा । 'स्व' का सच्चा अर्थ है आत्मा, उसका 'अर्थ' यानी 'प्रयोजन', वही सच्चा स्वार्थ है । अर्थात् आत्मार्थ जो कि परमार्थ है, वहीं सच्चा स्वार्थ है। स्वार्थ और परमार्थ के बीच से यह मिथ्या भेद का परदा उठा देना होगा? यानी 'स्व' और 'पर' के भ्रामक भेद- विज्ञान को मेटकर 'स्व' यानी आत्मा और 'पर' यानी अनात्मा के सच्चे भेद विज्ञान को स्थापित करना होगा। जीवनमात्र को आत्मवत् अनुभव करने की अविराम साधना ही हो हमारा पुरुषार्थ... ।" क्षणैक चुप रहकर फिर अजस्र उन्मेष की वाणी में अंजना बोलती ही चली गयी "हाँ, तब निमित्त से हम दूसरों के कर्मों को भी बदल सकते हैं। हम अपने कर्म को जब बदल सकते हैं, अपनी चेतना में उसके अनिष्ट फल को अस्वीकार कर सकते हैं तो निश्चय ही हमारे आत्म परिणाम सम की ओर जाएँगे तब लोक में हमसे सम्बन्धित प्राणियों से जो हमारा जीवन का योग हैं, उनमें हमारे सम आत्म-परिणामों के संसर्ग से कुछ सत्-प्रक्रिया होगी। और यों आत्म-निर्माण में से लोकमंगल का उदय होगा। तीर्थंकर के जन्म लेने में उस काल और उस क्षेत्र के प्राणिमात्र की कर्म वर्गणाएँ काम करती हैं। निखिल लोक के सामूहिक पुण्योदय और के योग से वह जन्म लेता है। उस काल के जीवन मात्र के अभ्युदय परिणाम शुभ और शुभ कर्म को गुंजीभूत व्यक्तिमत्ता होता है वह तीर्थकर वह सर्व का केन्द्रीय अभ्युदय है। पर पुण्य और पाप दोनों ही अन्ततः संचय करने की चीज नहीं हैं। पहला यदि स्वर्ण की साँकल है तो दूसरा लौह की हैं दोनों ही बन्धन पुण्य कामना से उपार्जित नहीं होना चाहिए, वह आनुषंगिक फल होना चाहिए। हमें अपने पुण्य फल का अनासक्त भोक्ता होना है, उस पुण्य फल को सबका बना देना है। तब अभिमान करेगा और संघर्ष क्षीण होगा। जो सर्व के कल्याण की कांक्षा से शुभ कर्म करता है, उसमें वैयक्तिक फल की कामना नहीं होनी चाहिए। अपने ही लिये I मुक्तिदूत : R7
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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