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________________ में है, और कहीं नहीं है। कल-शील. मर्यादा, पाप-पुण्य, जन्म-मरण के स्वामी वे आप हैं। ये आप अपनी मर्यादा की रक्षा करेंगे। निश्चिन्त होकर सर्व के प्रति अपने को देते चलना है।...जानें कब, एक दिन वे निश्चित मिल जाएँगे-इस जन्म में हो, कि पर जन्म में हो...' ___"इतना बड़ा विश्वास उत्त पुरुष के प्रति कर सकोगी, अंजन! जो क्षण की उमंग में तुम्हें त्याग कर चला गया; और जिसके कारण परित्यक्ता और पदच्युता छोने का कलंक सिर पर धरकर तुम्हें जीवन में चलना पड़ रहा हैं?" "त्याग करने की स्पर्धा कोन कर सकता है, जीजी: कौन किसी को त्याग सका है, जब तक किसी को अपनाने की सामर्थ्य हमारी नहीं है। यह त्याग तो केवल दम्भ है, आत्म-छल है। वह केवल अपने अहं की झूठो तप्ति है। अपनाया हैं, इसी से तो त्यागने के अधिकार का उपयोग उन्होंने किया है। कुछ दिन अपने मान को लेकर वे खेलना चाहते हैं तो खेल लें, इसके बाद जव मिलेंगे तो बीच में कुछ आ नहीं सकेगा! वे किसी असाधारण रास्ते से मेरे पास आने में महत्ता अनुभव करते हैं तो इसकी उन्हें छुट्टी है। पर जीजी, बाधा पुरुष की नहीं है, बाध्यता तो केवल प्रेम की है। और उसी प्रेम की परीक्षा भी है कि वह अपने प्रेय को प्राप्त कर अपने को सत्य सिद्ध करे । वहाँ पुरुष गौण है, और विशिष्ट पुरुष तो अचिन्तनीय भी हो सकता है। पर यदि प्रेम किसी विशिष्ट पर ही अटका है तो उसमें से अपना द्वार बनाकर ही मुक्ति की राह खुल सकेगी। इसमें लज्जा भी नहीं है और अपमान भी नहीं है। वह दासत्व नहीं है, वह अपनी ही सिद्धि के लिए सहन करना हैं। पुरूप, पुरुष है और बलवान है, और नारी कोपला है और सब कुछ सह सकती है, इसीलिए जब चाहें उसे त्यागने का अधिकार पुरुष को है, यह मुझे मान्य नहीं है। नारी की सर्वग्राही कोमलता में एक दिन, दृप्त पुरुष का मिथ्याभिमान, निश्चित आकर गलित हो जाएगा! स्त्री के सर्वहारा प्रेम की इस सामर्थ्य में मेरा अदम्य विश्वास है, जीजी । यदि कापुरुष की परम पुरुष बना सकने का आत्मविश्वास हमारा टूटा नहीं है, तो किस पुरुष का अत्याचार है जो हमें तोड़ सकता है?...पर बह नहीं कह रही हैं कि हमें पुरुष की होड़ करनी है। हमें अपने प्रेम की मर्यादा नहीं भूल जानी है। हमारा जो देय है वह हमें देते ही जाना है। पुरुष सदा नारी के निकट बालक है। भरका हुआ बालक अवश्य एक दिन लौट आएगा। बालक पर तो दया ही की जा सकती है। उसकी हिंसा के विष को पीकर भी नारी ने उसे सदा दूध पिलाया है। नारी होकर अपने इस दायित्व को हमें नहीं भूल जाना है। पर इसीलिए अबला होकर वह असत्य से टक्कर लेगी और उसे चूर्ण कर देगी। उसका आत्मार्पण भी निष्क्रिय और अज्ञ नहीं है, वह ससंज्ञ है। उसके मुक्तिमार्ग में पुरुष उसकी बाधा बनकर नहीं आ सकता। "पर महादेवी जी ने जो कहा है, उसका क्या होगा, बहन?" पुस्तिदूत ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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