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________________ अवसर पाकर वसन्त ने धीरे से पूछा- "अंजन, कल रात जो महादेवी ने कहा, उस सम्बन्ध में तूने क्या सोचा है?" प्रश्न सुनकर क्षणेक अंजमा की आँखें मैंद रही, भृकुटी में एक वलय-मा पड़ा और तब मर्म से भरी वह येधक दृष्टि उठी। बड़े ही धीर और गम्भीर स्वर में बह बोली ___ “सोचकर भी उस सबका कुछ ठीक-ठीक अर्थ मैं नहीं समझ पायी हूँ। कुल की मर्यादा मैंने लोप दी है? यह कुल की मर्यादा कौन-सी ध्रुव लकीर है और वह कहाँ है, सो मैं ठीक-ठीक नहीं चीन्ह सको हुँ । प्राणी और प्राणी की प्रकृति एकता के बीच क्या कोई बाधा की लकीर खींची जा सकती है।...और वह कुलीनता क्या है: माना कि गोत्रकर्म है। और उससे ऊँच-नीच कुल या स्थिति में जन्म होता है। पर कर्मों के चक्रव्यूह तो भेदते ही चलना है। क्या कर्म पालने की चीज़ है: या वह संचय करने की चीज़ है? आत्मा में यह जो पुरातन संस्कारपुंज जड़ और मृण्मय हो गया है, उसे खिराना होगा। नवीन और उज्ज्चलतर कर्मों के बीच से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना होगा। जो कर्म-परम्परा अपने और पर के लिए अनिष्ट फल दे रही है, जो आत्मा आत्मा के निसर्ग ऐक्य सम्बन्ध का हनन कर रही है, वह मुक्ति मार्ग में सबसे अधिक घातक है। वह गोत्रकर्म की बाधा शिरोधार्य करने योग्य नहीं है, वह भोग करने योग्य नहीं है। मिथ्या है वह अभिमान। वह त्याज्य और परिहार्य है। असत्य को ध्रव मर्यादा मानकर नहीं चल सकूँगी, जीजी! इस अहंकार को पद-पद पर तोड़ते हुए चलना है। वही जीवन की सबसे बड़ी विजय है। जीवन का नाम है प्रगति । जो है, उसी को अन्तिम मानकर नहीं चला जा सकेगा? सतह पर जो दीख रहा है वही पदार्थ का यथार्थ सत्य नहीं है वह व्यभिधरित सत्य है। वह माया है, वह छलना है। उस यथार्थ तत्त्व तक पहुँचने के लिए-माया के इन आवरणों को छिन्न करना होगा। इन क्षुद्र ममत्वों को मेटना होगा। प्रगतिमान् जीवनी-शक्ति पुरातन कर्म-परम्पराओं से टक्कर लेगी--उनका प्रतिषेध करेगी, उन्हें तोड़ेगी। निखिल के स्पन्दन को अपने आत्म-परिणमन में वह एक तान कर लेना चाहेगी। इस प्रगति की राह में जो भी आए, बह प्रतिष्ठा करने योग्य नहीं है, वह तोड़ फेंकने योग्य है..." बोलते-बोलते अंजना को लगा कि वह आवेग से भर आयी है। उसके स्वर में किंचित उत्तेजना है। कहीं इस कथन में राग तो नहीं है। यह चुप हो गयी। अपने आपको फिर तोला और गहरे स्वर में बोली ___ "...हाँ यह जो तोड़-फेंकने की बात कह रही हूँ-इसमें एक खतरा है। आत्मनाश नहीं होना चाहिए। कषाय नहीं जागना चाहिए। सर्वहारा होकर हम चल सकते हैं, पर आत्महारा होकर नहीं चला जा सकेगा। मूल को आघात नहीं पहुंचना है। संघर्ष से तो परे जाना है, उसकी परम्परा को तो छेदना है। विषम को सम पर NA :: मुक्तिदृत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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