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________________ 16 सवेरे जब ब्राह्म-मस: अंजना जागी सं का र आकाश-सा स्वच्छ और हल्का धा। कोई दुविधा नहीं थी, कहीं भी कोई अर्गला नहीं थी। वह निन्छ चली गयी, अटल अपने पथ पर । मुगवन की शिला पर जब उसने कायोत्सर्ग से आँखें खोलीं, तो अरुणाचल पर बालसूर्य का उदय हो रहा था। उसमें दीखा कि एक तरुण-अरुण विद्रोही चला आ रहा है; उसके उठे हुए दायें हाथ की उँगली पर एक आग्नेय चक्र घूम रहा है। अपने पैरों में साँपों-सी लहराती अन्धकार की राशियों को वह भेदता हुआ चल रहा है...! एक अदम्य आत्म-निष्टा से अंजना भर उठी। नहीं, वह असत्य को सिर नहीं झकाएगी-बह मिथ्या को शिरोधार्य नहीं कर सकेगी। यह प्रतिषेध करेगी। बह दुराग्रह नहीं है, वह तो सत्य का पावन अनुरोध है। वह यात नहीं करेगा, वह कल्याण ही करेगा। चित्त में आज उसके अपूर्व चिन्मयता और प्रसन्नता है। वह मृगवन से सीधी पुण्डरीक-सरोवर के तीर पर चली आयी। महल से चलती बेर प्रतिहारी को आदेश कर आयी थी कि वह देवी वसन्तमाला को जाकर सूचित कर दे कि आज सरोवर के 'गन्ध-कटी' चैत्य में पूजा का आयोजन करें। पुण्डरीक सरोवर के बीचोंबीच अमृत-फेन-सा उजला मर्मर का 'गन्ध-कुटी' चैत्य है, जिसमें प्रभु के समवसरण की बड़ी भव्य और दिव्य रचना है। सरोवर के किनारे जो दूर तक मर्मर का देव-रम्य घाट फैला है, उस पर थोड़े-थोड़े अन्तर से जल पर झुके हुए वातायन हैं। तीर से चैत्य तक जाने के लिए एक सुन्दर पच्चीकारी के रेलिंगवाला मर्मर का ही पुल बना है। वसन्त वेदी पर पूजार्घ्य सँजीये अंजना की राह देख रही थी। अंजना के हृदय में आज सुख नहीं समा रहा था। आयी तो वसन्त को हिये भरकर मिली, जैसे आज कोई नया ही मिलन है। नयी है आज की धूप, आज की छाया, आस-पास का याह हरितामा से भरा उद्यान, ये कुंज, ये घाट, ये झरोखे, जल, स्थल और आकाश, सब नया है। अणु-अणु एक अपूर्व, अद्भुत नावीन्य मुग्ध और सुन्दर हो उठा है। दोनों बहनों ने बड़े तल्लीन भक्ति-भाव से पूजा की। शान्तिघारी और वितजन के उपरान्त अंजना ने बड़े ही संवेदनशील कण्ठ से प्रभु के सम्मुख आत्मालोचन किया और अन्त में अपने आपको निवेदन कर नत हो गयी। पूजा समाप्त होने पर, दोनों बहनें चैत्य की छत पर आकर, एक झरोखे में बिछी सीतल-पाटियों पर बैठ गयीं। चारों ओर सुनील जलप्रसार की ऊर्मिलता है। देखते ही अंजना को जैसे चैतन्य के शुद्ध और चिर नवीन परिणमन का आभास हुआ! मुक्तिदूत :: ४९
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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