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________________ बाथा कहाँ थी। वह कहीं भी तो न अटक सकी। कोई रोक भीतर से नहीं हुई। वसन्त ने एकाध बार कुछ संकेत किया था, पर वह सब उसकी समझ में न आ सका था। वह बहुत कुछ बाहर का स्थूल लोकाचार था जो आत्मा के मूल्यों पर आधारित नहीं दीखा। वसतिकाओं और ग्रामों में वह क्यों गयो? इसका कोई उत्तर उसके पास नहीं है। यह सब वह अपने भीतर उपलब्ध करती गयी है। अन्तर की पुकार ने उसे वहाँ पहुँचाया है। 'शिरीष-कानन' के 'अशोक-चैत्य' के दर्शन करके वह लौटती-तब वे वसतिकाएँ उसकी राह में पड़ती थीं। कहाँ थीं ये उसकी राह के बाहर? लाज, कुल, शील, मर्यादा, प्रारश्च, विवाह, परित्यक्ता, पदच्युता, लोकापवाद-एक के बाद एक सफ़ेद प्रेतों की श्रेणी-सी उठ खड़ी हुई, और वे सारे प्रेत आपस में टकराने लगे। देखते-देखते एक भीमाकार अँधेरे की प्राचीर-सी उसके सामने उठने लगी।..और अगले ही क्षण एक अनिर विप्लव की झंझाएँ जैसे उसके समस्त देह, मन-प्राण में मँडराने लगी... | और भीतर के तल-देश से एक करुण प्रश्न को चीत्कार-सी सुनाई पड़ी-“आह वे माता-पिता, के भाई, ये सास-माता और श्वसुर-पिता, वसन्त और ये सब परिजन-? क्या होगा इन सबका? इन सबका ऋण वह कैसे चुकाए? बे कितने विवश हैं? -अपने सीमा बन्धनों में ये छटपटा रहे हैं। वह कैसे उन्हें मुक्त करे इन रूढ़ताओं से-इस मिथ्यात्व से? वह कैसे उन्हें समझाए? ....पर, वह कब उन्हें छोड़कर गयी है। उन्हीं का प्रेम और कृतज्ञता क्या बार-बार उसे खींचकर नहीं लौटा लाये हैं....एकाएक के प्रलय के बादल फट गये। आंसुओं का एक अकूल पारावार सारे तटों को तोड़कर लहरा उठा।...नहीं, आज वह नहीं पी सकेगी, ये आँसू! यह अपने लिये रोना नहीं है। सबके प्रति उसका यह आत्म-निवेदन है। कहाँ है इस प्रवाह की सीमा-वह स्वयं नहीं जानती... "...ओ मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम! तुम हो मेरी मर्यादा, और तुम्ही उसकी रक्षा करो। मैं तो केवल यहना जानती हूँ, टूट चुकी हूँ लहर-लहर में।...अब राह में विश्राम कहाँ...जब तक उन चरणों में आकर लीन न हो जाऊँ?...और बाहर का कोई शासन अनुशासन मुझे मान्य नहीं, इसी से अग्निपरीक्षाएँ अब सम्मुख हैं। मुसकराता हुआ मेरा सत्य इस ज्वाल-पथ पर चला चले, वह बल मुझे दान करो, देव! कुल की लीक क्या तुमसे भी बड़ी है? कौन-सी मर्यादा है, जो तुम तक आने से मुझे रोक सकेगी? प्रवाह की इन लहरों में वह आप ही टूट जाएगी। उसमें मेरा क्या दोष है? बोलो न, चुप क्यों हो? तुम्हारी शरण में सब सुरक्षित हैं। इहलोक, परलोक, नरक स्वर्ग, मुक्ति, सब वहीं चढ़ाकर अब निश्चिन्त होकर चल रही हूँ, कोई दुविधा नहीं है। ...वे सतत आ रहे चरण कब आँखों से ओझल हुए हैं...?" ...और इसी बीच जाने कब उसकी आँख लग गयी। 12 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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