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________________ अपने को बहुत मत मानो, क्योंकि वहीं सारे रोगों की जड़ है। मानना ही लो मान है। मान सीमा है। आत्मा ती असीम है और सर्वव्यापी है। निखिल लोकालोक उसमें समाया है। वस्तु मात्र तुममें है-तुम्हारे ज्ञान में है। बाहर से कुछ पाना नहीं है। बाहर से पाने और अपनाने की कोशिश लोभ है। वह, जो अपना है उसी को खो देना है, उसी को पर बना देना है। मान ने हमको छोटा कर दिया है. जानने देखने की शक्तियों को मन्द कर दिया है। हम अपने ही में घिरे रहते हैं। इसी से चोट लगती है-दुःख होता है। इसी से राग है, द्वेष है, रगड़ हैं। सबको अपने में पाओ-भीतर के अनुभव से पाओ। बाहर से पाने की कोशिश माया है, झूठ हैं, वासना है। उत्तो को प्रभु ने मिथ्यात्य कहा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष सब तुम्ही में है। उनका होना तुम्हारे ज्ञान पर कायम है। कहा न कि तुम्हारा जीव सत्ता मात्र का प्रमाण हैं; वह सिमटकर क्षुद्र हो गया है, तुम्हारे मैं' के कारण। 'मैं' को मिटाकर 'सब' बन जाओ। जानने-देखने की तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति का परिचय इसी में भसमग्र को जानने की इच्छा का नाम ही प्रेम है-वही धर्म है। जानने को व्यया को गहरी होने दो। जितनी ही वह गहरी होगी, आपा खिरता जाएगा, सबके प्रति अपनापा बढ़ता जाएगा। यही प्रेम का मार्ग है-धर्म का मार्ग है। मुक्ति चाहने को चीज नहीं है। उसका ध्यान भुला दो।" ___ "मुक्ति को लेकर ही हममें कांक्षा और गर्व जागेगा तो क्या मुक्ति मिलेगी। वह तो बन्धन ही होगा। अपने को मिटाओ; मुक्ति आप ही मिल जाएगी। मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं हैं-वह समग्र की प्राप्ति में है, सब-रूप हो जाने में है...' ग्रामजन वात्सल्यबश फल, दूध-दही, मक्खन की मधुकरी ले आते। साध्वी के पैर पकड़ लेते कि उनका उपहार लेना ही होगा। वह हाथ की अंजुली में लेकर उसे सिर से लगा लेती-और आस-पास के बालकों में बाँट देती। पीछे से खल्प प्रसाट ग्रहण कर आप भी कृतार्थ होती। दोनों जड़े हाथों पर सिर नवाकर ग्रामजनों को नमस्कार करती और चल देती-खेत के पथ पर, मृगवन की ओर। लोकजनों में एक जिज्ञासा बनी हुई थी-कैसी है या साध्वी, जो अज्ञानियों को नमन करती है : ऐसी साध्वी तो नहीं सुनी। सचमुच विचित्र है वह: मृगवन से सन्ध्या का सामायिक कर अंजना अपने महल को लौट रही है। बाहर रात अँधेरी है, शीत बहुत तीव्र है। अंजना अकेली ही चली आ रही है। ऊपर आकर उसने पाया, उसके कक्ष में महादेवी केतुमती बैठी हैं। पास ही पक्तिद्ता ::
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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