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________________ बधुओं को लगा, जैसे इससे कुछ छुपा नहीं है। पहले जिन प्रश्नों और जिज्ञासाओं को किसी से नहीं पूछा था अपने अभिन्न वल्लभ से भी नहीं... वे सन अन्तिम प्रश्न मन में खुल-खिल उठे। लज्जा मर्यादा से परे हैं वे अन्तर की गोपन पहेलियाँ। एक-एक कर उन्होंने पूछ डाले वे प्रश्न । वह साध्वी सुनकर मुसकरा पड़ती है, उन प्रश्नों के वह सीधे उत्तर नहीं देती हैं। वह छोटी-छोटी, और रंजनकारी कहानियाँ कहती है । लीला करती है वो करती है, और जाने पर जाती हैं। सुगम बहुएँ समाधान I हवा बात ले गयी। कुछ ही दिनों में आस-पास की सारी बस्तियों और गाँवों के किनारों पर वह साध्वी दिखाई पड़ने लगी । अनिश्चित कालान्तराल से अतिथि की तरह कभी-कभी वह आती। ग्राम के बाहर की किसी पान्यशाला में, किसी मन्दिर के चबूतरे पर किसी शिलातल पर या किसी वृक्ष के तले पत्तों पर वह एकाएक बैठी दिखाई पड़ती। देखते-देखते ग्राम-जन, स्त्री-पुरुष, वालक- वृद्ध सभी जाते जुट वह कब कहाँ से आती और कहाँ चली जाती, यह जानने का कुतूहत लोगों का अब मिट चला था । वलय और तिलक भी नगण्य हो गये थे। निश्चित वह कोई साध्वी है, जो तत्त्व को पा गयी है। क्योंकि वह उन सबों के हृदयों की स्वामिनी हो चली थी - इन्हों कुछ वर्षों में। और साध्वी का कौन स्थान, क्या पता और क्या समय? वह उन्हें सुप्राप्त थी। चली जाती और बहुत दिनों में आती, उसका कुछ ठीक नहीं था। पर वह उस लोक-जीवन का हृदयस्पन्दन बन गयी थी। वह जीवन के केन्द्र में बस गयी थी, सो सदा उनके साथ थी I ग्राम- जन अपने सुख-दुखों की बात कहते। जीवन के बाह्य आधारों में सभी लुष्ष्ट थे। रोटी का संघर्ष नहीं था - भौतिक जीवन-सामग्री सब स्वाधीन थी और अपार थी । सुख-दुःख थे मन के वैकारिक संघर्षो को लेकर ही जिज्ञासाएँ जन्म-मरण, रोग-शोक, हर्ष-विषाद और मुक्ति को लेकर थीं। प्रतिदिन के मानवीय सम्बन्धों में जो राग और द्वेष की रगड़ है, हार-जीत है, क्रोध, मान, माया, लोभ का जो सूक्ष्म संघर्ष सर्वव्यापी है; जिसे जानते हुए भी उसकी जड़ तक पहुँचकर हम उसे ठीक नहीं कर पाते। उसी को लेकर उनकी समस्याएँ थीं। सबसे अधिक प्रबलता थी मान की, प्रभुत्व को अधिकार और स्वामित्व की । I साध्वी के उत्तर बहुत सरल और सीधे होते। वे सबकी समझ में आते। वह सूत्र वाणी बोलती एक उत्तर में कई प्रश्नों के उत्तर एक साथ मिल जाते । कमल की पंखुड़ी में से पंखुड़ी खुलती जाती। चेतन के अन्तराल में उजाला छा जाता। व्यक्ति की सीमाएँ मानो लोप होने लगतीं । जन-जन में एक ही प्राण की अविच्छिन्न धारा दौड़ने लगती। समस्त चराचर की विशाल एकता के बोध में मन आप्लावित हो जाते। जन्मों की विच्छेद-वार्ता पुलकों के आँसू बनकर झर जाती । साध्वी के बोल लोक- कण्ठ में बस चलें.. 78 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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