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________________ वसन्तमाला और जयमाला बैठी हैं। राजमाता गम्भीर हैं और चुप हैं। कक्ष में एक क्षुब्ध खामोशी है। देखकर अंजना स्तब्ध रह गयी...! आशातीत और अमूतपूर्व है यह घटना । जब से वह इस महल में राजवधू बनकर आयी है, इतने वर्ष निकल गये हैं, महादेवी वहाँ कभी नहीं आयीं। यहाँ जो ज्वाला निर्मूल जल रही है, उसे देखने की छाती शायद राजमाता की नहीं थी। दूर से इस सौध का रत्नदीप देखकर ही उनका हृदय दुःख से फटने लगता था। पर आज...: आज कौन-सी असाधारण स्थिति उत्पन्न हुई हैं कि कलेजे पर पत्थर रखकर वे यहाँ चली आयी हैं। देखकर अंजना भौचक-सी रह गयी। क्षणभर कक्ष की देहरी में ठिठक गयी।...सपना जैसे भंग हो गया। वस्तुस्थिति का भान हुआ। अन्तर्लोक लुप्त हो गया। उसने पाया कि वह बाहर के व्यवहार-जगत् में है। दुसरे ही क्षण वह नम्र, विनत हो आयी। आकर उसने महादेवी के चरण छए, और पास ही यह दलकी-सी बैठ गयी। आँखें उठाने और कुशलवार्ता पूछने की बात दूर, यहाँ होना ही उसे दूभर हो गया है। अपने आप में वह मुँदी जाती है। जैसे सिमटकर शून्य हो जाना चाहती है-धरती में समा जाना चाहती है। गम्भीर स्वर में महादेवी ने स्तब्धता भंग की "देखती हूँ बेटी, तुम्हारा चित्त महल में नहीं है। कुल के परिजनों से नाता स्नेह नहीं रहा? पर वह तो हमारे ही प्रारब्ध का दोष है। घर का जाया ही जब अपना न हो सका, तो तुम तो पराये घर की लड़की हो, कौन-सा मुँह लेकर तुमसे अपनी होने को कहूँ? पर राजकुल की मर्यादा लोप हो गयी है! लोक में अपवाद हो रहा है; तव तुम्हारे निकट प्रार्थिनी होकर आने को बाध्य हुई हूँ। बहुन दिन तुम्हारी राह देखी, सन्देश भेजे, पर तुम तक वे पहुँच न सके, तब और क्या चारा था? "मृगवन के सीमान्त पर तुम सामायिक करने जाती थीं, सुना, तो सोचा कोई बात नहीं है, वह अन्तःपुर का ही क्रीड़ा प्रदेश है। पर वहाँ भी तुम्हारा सामायिक न हो सका! तब अरुणाचल की पहाड़ी तुम्हें लाँवनी पड़ी-भील-कन्याएँ तुम्हारी सहचरियाँ हो गयीं । यहाँ की प्रतिहारियों और सखियों का संग तुम्हें असह्य हो गया। तुम अकेली जाने लगी। फिर तो गोप-अस्तियों, कृषक-ग्रामों और राजसेवकों की वसतिकाओं में भी तुम्हारा स्वच्छन्द बिचरण शुरू हो गया। सुनकर विश्वास नहीं हुआ-सब पीती ही गयी हूँ। पर आज समस्त आदित्यपुर नगर में राजवधू के स्वैर-विहार पर चर्चाएँ हो रहो हैं। और इस वेश में...? तुम्हें कौंन पहचानता कि तुम राजकुल की वधू हो? इसी से तो विचित्र कहानियाँ कहीं जा रही हैं। अपने लिए न सही, पर इस घर की लाज तुम्हें निभानी थी। कुल के शील और मर्यादा की लीक तुमने तोड़ दी। आदित्यपुर की युवराज्ञी ग्रामजनों, भीलनियों और सेवकों के बीच भटकती फिरे? क्या यही है उसकी शोल और मर्यादा? क्या यही है उसकी HP :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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