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________________ दुःख और विषाद के पुंज घनीभूत हो रहे थे। मोह की वह रात्रि अब तिरोहित हो गयी है । नवोन प्रकाश के इस अनन्त में उड़ने को अब वह स्वतन्त्र हैं। प्रेम ममत्व नहीं हैं। दुःख और वेदना की यह मोहिनी ममत्व की प्रसूता है। पर अंजना तो उत्सर्गिता है, अपने को यों बाँधकर यह नहीं रख सकेगी। और अपने को वह रखेगी किसलिए? किस दिन के लिए और किसके लिए क्या अपने ही लिए? पर वह अपनत्व शेष कहाँ रह गया है? वह तो छाया है, वह भ्रान्ति है। यह दख और यह विषाद और ये आँसू, वह सब अपने ही को लेकर तो था। अचेतन के खोखलेपन में मिथ्या की प्रेत-छायाएं खेलने लगी थीं। और मर्यादा किसलिए? मर्यादा तो वे आप हैं, जहाँ जाकर अपने को लय कर देना है। इस राजमन्दिर और इस लोकालय की मर्यादा उसके दृष्टि-पथ में नहीं आ रही है। इन किनारों में जीवन को थामने का क्या प्रयोजन है? और कौन हैं जो थाम सकेगा? वह जीवन जो हाथ से निकल चुका है और जिसकी स्वामिनी वह आप नहीं है! उसे लगा कि अपने अनजाने ही अब तक वह मृत्यु का वरण करने में लगी थी। प्रेम का वह निसर्ग स्रोत रुद्ध हो गया था। प्रेम आप ही अपनी मर्यादा है-उससे ऊपर होकर और कोई शील नहीं है। शील क्या दुराव में है: वहाँ तो शील की ओट पें पाप पल रहा है। सो, न देव-मन्दिर ही और न कक्ष में ही अब उसका सामायिक (आत्मध्यान) सम्भव रह गया है। प्रातः-सायं सामायिक की येला होते ही वह चली जाती है, राजमन्दिर का सीमान्त लाँघकर, दूर के उस मृगवन में। पुण्डरीक सरोबर के उस पार बड़ी दूर तक चन्दन का एक वन फैला है। और ठीक उसके बाहर निकलते ही एक यन-खण्ड आ गया है, जिसमें मृगों के झुण्ड उन्मुक्त विचरते हैं। काफी दूर तक मैदान समतल है, उसके बाद कुछ पहाड़ियाँ और टीले हैं। सबसे परे जो पहाड़ी है, उसका नाम अरुणाचल है। उस पर ऊँचे तनेवाले नील-गिरि के शाड़ों की एक कतार खड़ी है। पहाड़ी के दालों में कुछ झाड़ी-जंगल है, तो कहीं-कहीं चट्टानों और पत्थरों की आड़ में वृक्षों से छाये मृगों के आवास हैं। मैंदान के बीच-बीच में जो टीले इधर-उधर बिखरे हैं, वे ही मृगों के क्रीडापर्वत हैं। मैदान, टीले और पहाड़ियों पर हरियाली का स्निग्ध, शाहल प्रसार फैला है। समतल में इधर-उधर नीलम खण्डों से जलाशय चमक रहे हैं: किनारे जिनके ऊंची-ऊंची घास और जल-गुल्मों के पुंज हैं। विचरते हुए मृग वहाँ पानी पीते दिखाई पड़ते हैं। कहीं-कहीं वन-लताओं से छायी स्निग्ध, श्यामल वन्य-झाड़ियाँ फैली हैं, जिनमें खरमोश रहते हैं। इन जलाशयों के किनारे कास के वन पंजों में से कभी दुबके से निकलकर सर्र से वे अपनी झाड़ियों में जा छुपते हैं। अरुणाचल पहाड़ी के उस पार 72 :: मुक्तिदत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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