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________________ ये लन्नाते हुए आयुध - शाला के ऊपर निकल आये। सिंहासन की सीढ़ी पर मुँह हाथों में ढककर बैढ़ गये। खून निकलकर पैरों को लथपथ करता हुआ चारों फैल रहा है. आँख उठाकर उन्होंने देखा एक प्रतिहारी साहसपूर्वक उस ज़ख्म को एक हाथ से दबाकर उत्त पर व्रणोपचार किया चाहती है-पट्टी बाँधा चाहती है। कोमलता ? ... ओह, कायरता की जननी! वह असह्य है उन्हें । न... न...न हरगिज़ नहीं - यह सब वे नहीं होने देंगे। “हट जाओ प्रतिहारी, इस व्रण का उपचार नहीं होता!" झुंझलाकर कुमार ने पैर हटा लिया। "देव, तुम्हारे अत्याचार अब नहीं सहे जाते ?" काँपती आवाज में साहसपूर्वक प्रतिहारी आवेदन कर उठी। उपचारोन्मुख खाली हाथ उसके शून्य में थमे रहे गये हैं- और आँखों में उसके आँसू झलझला रहे हैं। कुमार के हृदय में जहाँ जाकर प्रतिहारी का यह वाक्य लगा है, वहाँ से उसके इस दुःसाहल का प्रतिकार न कर सके। वे अवाक् उसका मुँह ताकते रह गये । ओह नारी... कोमलता... आँसू ? फिर वही मोह जाल... फिर वही माया मरीचिका ? फिर दोनों हाथों में बड़े जोर से मुख को भींच लिया। सारी इन्द्रियों को मानो उन्होंने अपने भीतर सिकोड़ लिया। नहीं, इस कोमलता के स्पर्श को वे नहीं सह सकते । यह कातरता है... यह दया है ।... और कोन है यह प्रतिहारी, तुच्छ...जो पवनंजय पर दया करेगी? वे अपने आप में अपने को अस्पृश्य शून्य अनुभव करने लगे। पर उन्हें लगा कि वह कोमलता हार नहीं मान रही है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर उनकी सारी स्नायुओं को बींधती हुई, शिरा-शिरा को परिप्लावित करती हुई उनकी समस्त आत्मा में सिंच गयी है - परिव्याप्त हो गयी है। वह अक्षत माधुर्य-धारा है, वह अमोघ अमृत है। नहीं... उससे वे अपने को बचा नहीं पा रहे हैं! और जाने कब, जब आँख खुली तो देखा - सामने रक्त की एक भी बूँद नहीं | है केवल फेन-सा रुई का एक पट्टा, जो उस पैर की पिण्डली पर चमक रहा है । I एक गहरी निःश्वास छोड़कर पवनंजय उठ बैठे अपने ही आप में उद्वेलित होकर वे उस विशाल दीवानखाने में बड़े-बड़े डग भरते हुए चक्कर काटने लगे । 13 अंजना ने पाया, अन्तर के क्षितिज पर एक नवीन बोध का प्रभात फूट रहा हैं । ममत्व के इस नीड़ में अब वह प्रश्रय नहीं खोज सकेगी। इस नीड़ के सुनहले तिनकों में मुक्तिदूत :: 71
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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