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________________ नगर के भवन छज्जे, अटारी और वातायनों में उड़ते हुए सुगन्धित दुकूल और कोमल मुखड़ों को छटा खिली ही कैकपर और कलियों की कार तथा पृदुकण्ठों की गान - लहरियों से वातावरण चंचल-आकुल है।... और पवनंजय ने मानो आकाश का तट पकड़कर यह निश्चय अनुभव करना चाहा कि वह इस सब पर पैर धरकर चल रहा है ! पुष्पों, पुष्पहारों और हेमकुंकुम से ढकी हुई अंजना दोनों हाथों पर भाल के तिलक को झुकाकर प्रजाजनों के अभिनन्दन झेल रही थी । देह के तट तोड़कर जैसे उसका समस्त आत्मा आनन्द के इस अपार समुद्र में एकतान हो जाने को आकुल हो उठा है। क्यों है यह अलगाव, यह दूरी यह खण्ड-खण्ड सत्ता? यही है उसकी इस समय की सबसे बड़ी आनन्दवेदना । वह आज मानो अपने को निःशेष कर दिया चाहती है। पर इस अथाह शून्य में कोई थामनेवाला भी तो नहीं है। · 7 यह है युवराज्ञी अंजना का 'रत्नकूट - प्रासाद' । अन्तःपुर की प्रासाद-मालाओं में इसी का शिखर सबसे ऊँचा है। अनेक देशान्तरों के बहुमूल्य और दुर्लभ धातु, पाषाण और रन मँगवाकर महाराज ने इसे भावी राजलक्ष्मी के लिए बनवाया था। दूर-दूर के ख्यात वास्तु- विशारद, शिल्पी और चित्रकारों ने इसके निर्माण में अपनी श्रेष्ठतम प्रतिभा का दान किया है। आज लक्ष्मी आ गयी है और महल में प्रभा जाग उठी है | महल की सर्वोच्च अटारी पर चारों ओर स्फटिक के जाली - बूटोंवाले रेलिंग और वातायन हैं। बीचोंबीच वह स्फटिक का ही शयन कक्ष है, लगता है जैसे क्षीर-समुद्र की तरंगों पर चन्द्रमा उत्तर आया है। फ़र्शो पर चारों ओर मरकत और इन्द्रनील मणि की शिलाएँ जड़ी हैं। कक्ष के द्वारों और खिड़कियों पर नीलमों और मोतियों के तोरण लटक रहे हैं, जिनकी मणि घण्टिकाएँ हवा में हिल-हिलकर शीतल शब्द करती रहती हैं। उनके ऊपर सौरभ की लहरों से हल्के रेशमी परदे हिल रहे हैं। 1 कक्ष में एक ओर गवाक्ष के पास सटकर पद्मरागमणि का पर्यंक बिछा है उस पर तुहिन-सी तरल मसहरी झूल रही है। उसके पट आज उठा दिये गये हैं । अन्दर फेनों-सी उभारवती शय्या बिछी है। मीनाखचित छतों में मणि दीपों की झूमरें झूल रही हैं ! एक ओर आकाश के टुकड़े-सा एक विशाल बिल्लौरी सिंहासन बिछा है। उस पर कास के फूलों से खुनी सुख-स्पर्श, मसृण गद्दियाँ और तकिये लगे हैं। उसके आस-पास उज्ज्वल मर्मर पाषाण के पूर्णाकार हंस-हंसिनी खड़े हैं, जिनके पंखों में छोटे-छोटे कृत्रिम सरोवर बने हैं, जिनमें नीले और पीले कमल तैर रहे हैं। कक्ष 40: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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