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________________ शंखनादों से गूंज उडे । महाराज प्रसाद आज कैलास-यात्रा से लौटकर अपने राज-नगर आदित्यपुर को वापस आ रहे हैं। बोहर पर्वत-मार्ग को पार कर सैन्य की घ्यज्ञाएँ मुक्त किरणों में फहराने लगी। दूर पर आदित्यपुर के परकोट दीखने लगे। अंजना ने रथ के गवाक्ष की झालरें उठाकर देखा । शरद् ऋतु के उजले बादलों-से आदित्यपुर के भवन आकाश को पीठिका पर चित्रित हैं। विस्तीर्ण वृक्ष-घटाओं के पार, राज-प्रासाद की रत्नचूड़ाएँ बाल-सूर्य की कान्ति में जगमगा रही हैं। सघन उपवनी और कम-ससेवरों की आकुल 1 लेकर उन्मादिनी हवा बह रही है। श्यामल तरुराजियों में कहीं अशोक से कंकुम झर रहा है, तो कहीं गुलमोरों से केशर और मल्लिकाओं से स्वर्ण-रेणु झर रही है। अंजना के अंग-अंग एक अपूर्व सुख की पुलकों से सिहर उठते हैं। पर इन पुलको के छोरों में यह कैसी अविज्ञात कातरता है-चिर अभाव का कैसा संवेदन है? कि लो, देखते-देखते उत्सव का एक पारावार उमड़ आया। चिर-विचित्र वस्त्राभूषणों में नर-नारियों की अपार मेदिनी चारों ओर फैली है। नवपरिणीत युवराज और युवराज्ञी का अभिनन्दन करने के लिए प्रजा ने यह विपुल उत्सव रचा है। चारों ओर से अक्षत, कंकुम, गन्ध-चूर्ण और पुष्पमालाओं की वर्षा होने लगी। सबसे आगे गन्ध-पादन गजराज पर स्वर्ण-खचित हाथीदाँत की अम्बाड़ी में मणि-छत्र तले कुमार पवनंजय बैठे हैं। वे चौड़ी जरी किनार का हंस-धवल उत्तरीय ओढ़े हैं-और माथे पर मानसरोवर के बड़े-बड़े नीलाम मोतियों की झालरवाला किरीट धारण किये हैं। अपनी ईयत बॉकम ग्रीवा को जरा घुमाकर मानो अवहेलनापूर्वक वे अपने चारों ओर देख रहे हैं। होठों पर गुरु गरिमा की एक मुसकराहट जैसे चित्रित-सी थमी हैं। धनुषाकार होता हुआ एक भुजदण्ड अम्बाड़ी के कठघरे को थामे है। ईषत् गरदन हिलाकर, और कुछ अ उच्चकाकर ही वे प्रजा के उस सारे अभिनन्दन, जाभिवादन और जयकारों को झेल लेते हैं। नवीन चित्रों से शोभित, नगर के सिंह-तोरण पर अशोक और कदली की वन्दनवारें सजी हैं। तोरण के गवाक्षों में शहनाइयों की मंगल-रागिणियों बज रही हैं। उसके ऊपर के झारोखों से केशर-वसना कुमारिकाएँ कमलकोरक और फूलों की राशियाँ बरसा रही हैं। कुमार की गर्वदीप्त आँखों ने एक बार भू की मर्यादा तोड़कर, तोरण के झरोखों पर दृष्टि डाली।...चम्पक-गौर भुजदण्डों पर कमल-सी हथेलियों में कर्पूर की आरतियाँ झूल रही हैं। सौन्दर्य की उस प्रभा के सम्मुख कुमार की भौंहों का बह मानगिरे एकबारगी ही चूर्ण हो गया। मन-ही-मन वे उद्देलित हो उठे।... 'ओह, परिणय की स्वर्ण-सौंकलों से बँधा मैं, कैदी होकर लौट आया हूँ इन मायाविनिवों के देश में! और रूप की ये रजोराशियों विजेता के गौरव से खिलवाड़ किया चाहती हैं? जय-जयकार और शंखनादों के बीच कुमार के हाथी ने तोरण में प्रवेश किया। मुक्तिदूत :: 39
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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