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________________ तल-देश के सारे सुख-घांचल्य की जो छाया घनीभूत होकर उसके अन्तस्तल में पड़ रही है-यह क्यों इतनी करुण, नीरव और विषादमयी है? मानसरोवर की बेला में, लहरों से विचुम्बित परिणय की वेदी रची गयी है। सब दिशाओं की पार्वत्य वनस्पतियों और फल-फूलों से वह सजायी गयी है। चारों ओर रत्न-खचित खम्भे हैं जिन पर पणि-माणिक्य के तोरण-वन्दनवार लटके हैं। सुदूर जल-क्षितिज में सूर्य की कोर डूब गयी। ठीक गोधूलि-वेला में लग्न आरम्भ हो गया। हवन के सुगन्धित धूम्र से दिशाएँ व्याप्त हो गयीं । सन्ध्यानिल के मादक झकोरों पर वाद्यों की शीतल रागिणियाँ, तन्तु-वाद्यों की स्वर-लहरियों और रमणी-कण्ठों के मृदु-मन्द गान मन्थर गति से बह रहे थे। और बीच-बीच में रह-रहकर हवन के मन्त्रोच्चार की गम्भीर ध्वनियों गँज उठी। अंजना ने देखा, वे हंसों के युगल उन दूर के शैल-शृंगों के पार उड़े जा रहे हैं। और वह क्यों बिछुड़कर अकेली पड़ी जा रही है। सब कुछ अवसन्न, करुण, नीरव हुआ जा रहा है। आस-पास का गीत-वाद्य, कलरव, सब निःशेष हुआ जा रहा है। केवल मानसरोवर की लहरों का अनन्त अल-संगीत और हया के डू-ह करते शाकोरे । मानवहीन, निर्जन तट का महाविस्तार...! पाणि-ग्रहण की वेला आ पहुँची। अंजना को चेत आया। उसने साहस करके नीची दृष्टि से ही पवनंजय को देखना चाहा..., तब नक कय हथेली में हथेली जोड़कर बाँध दी गयीं, पता ही नहीं। यही है कामहनियोगी । वह पहचान नहीं पा रही है। उसे याद आ रहा है उस सन्ध्या का वह नौकाविहार, वह विरुद्ध-गामिनी लहरों पर जूझता हुआ पवनंजयः कहाँ है वह आज? क्या यही पुरुष है वह ? अरे कहाँ है वह इस क्षण? और लहरों के असीम विस्तार पर उसकी आँखें उसे खोजती ही चली गयीं। लोक में परिणय सम्पन्न हो गया! और दूसरे ही दिन दोनों राज-परिवार अपने दल-बल सहित अपने-अपने देशों को प्रस्थान कर गये।। विजयाधं की दक्षिण श्रेणो पर, आकाश-विहारिणी वन-लेखा से बालारुण का उदय हो रहा हैं। अनेक रथों, पालकियों और सैन्य की ध्वजाओं से पर्वतपाटियाँ चित्रित हो उठीं। दुन्दुभियों के तुमुल घोष ने घाटियों और गुहाओं को थर्रा दिया। दरी गृहों में सोये सिंह जागकर चिंघाड़ उठे। हिंस्र जन्तुओं से भरे कान्तारों का जड़ अन्धकार हिल उठा। पर्वत-गर्म से जानेयाले दरोमार्गों के चट्टानी गोपुर गगनभेटी वाद्यों और IB :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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