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________________ के बीचोंबीच पन्ने का एक विपुलाकार कल्पवृक्ष निर्मित है, जिसमें से इच्छानुसार कल घुमा देने पर अनेक सुगन्धित जलों के रंग-बिरंगे सीकर बरसने लगते हैं। मणि- दीपों की प्रमा में ये सीकर इन्द्रधनुष की लहरें बन बनकर जगत् की नश्वरता का नृत्य रचते हैं। कक्ष के कोनों में सुन्दर बारीक जालियों-कटे स्फटिकमय दीपाधार खड़े हैं, जिनमें सुगन्धित तेलों के प्रदीप जल रहे हैं। बाहर उत्सव का सायाह एक मधुर अलसत्ता और अवसाद से भरा है। आज सुहागिनी अंजना की शृंगार-सन्ध्या है। चारों ओर महलों के सभी खण्डों के झरोखों से मोहन-राग संगीत और प्रकाश की शीतल-मन्थर लहरें बह रही हैं। सुन्दर सुवेशिनी दासियाँ स्वर्ण थालों और कलशों में नाना सामग्रियाँ लिये व्यस्ततापूर्वक ऊपर-नीचे दौड़ती दीख रही हैं। शयन कक्ष के बाहर छत पर दासियाँ और सखियाँ मिलकर अंजना के लिए स्नान का आयोजन कर रही है। कुछ दूर पर नारिकेशय के अन्तराल से 'पुण्डरीक' नामक विशाल प्राकृतिक सरोवर की ऊर्मियाँ झाँकती दीख पड़ती हैं। नारिकेल शिखरों पर वसन्त के सन्ध्याकाश में गुलाबी और अंगूरी बादलों की झीलें खुल पड़ी हैं। ऊपर घिर आती रात की श्याम नील वेला में से कोई-कोई विरल तारक-कन्याएँ आकर इन झीलों में स्नान - केलि कर रही हैं। 1 देव- रम्य राजोद्यान के पूर्व छोर पर सघन तमालों की बनाली से सुहागिनी के मुखमण्डल-सा हेम प्रभ चन्द्रमा निकल आया । सरोवर से सद्यः विकसित कुमुदिनियों का सौरभ और पराग लेकर बसन्त का मादक सन्ध्यानिल झूमता-सा बह रहा है। छत के उत्तर भाग में एक पद्माकार केलि-सरोवर बना है। उसके एक दल पर स्फटिक की चौकी बिछा दी गयी है और उसी पर बिठाकर अंजना की स्नान कराया जा रहा है। सुगन्धित दूध, नवनीत, दही तथा अनेक प्रकार के गन्धजलों की झारियाँ और उपटनों के चषक लेकर आस-पास दासियों खड़ी हैं। वसन्तमाला अंग-लेप लगा-लगाकर अंजना को स्नान करा रही है। केलि सरोवर के किनारे गमलों में लगी भूशायिनी चल्लरियाँ हवा के हिलोरों में उड़ती हुई इधर-उधर डोल रही हैं। वे आ-आकर अंजना की अनावृत भुजाओं, जंघाओं, बाँहों और कटिभाग में लिपट जाती हैं। वह उन अनायास उड़ आती लताओं को विकल बाँहों से वक्ष में चाँपकर उन पर अपना सारा प्यार उँडेल देती है। एक अपूर्व अज्ञात सुख की सिहरन से भरकर उसका अंग-अंग जाने कितने मंगों में टूट जाता है। उनके छोटे-छोटे फूलों को अँगुलियों के बीच लेकर वह चूम लेती है-उन मृदुल डालों और नन्ही- नन्ही पत्तियों को गालों से, पलकों से हल्के-हल्के छुहलाती है। इस क्षण उसके प्यार ने सीमा खो दी है। बहिर्जगत् की लाज और विवेक जाने कहाँ पीछे छूट गया है। आस-पास खड़ी सखियाँ और दासियाँ हँसी- चुहल में एक दूसरी से लिपटी जा रही हैं। तभी हल्के-ते हँसते हुए वसन्त ने मधुर भर्त्सना की - मुक्तिदूत 41
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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