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________________ थे- । रणक्षेत्र में शस्त्रार्पण के उपरान्त जो प्रखर तेज विजेता पवनंजय के मख पर प्रकट हुआ था, वह भी इस मुख की कोमल-करुण दीप्ति के सम्मुख प्रहस्त को फीका लगने लगा। ___"मच्या 'भैया, आज्ञा दो. चलूँ! पहली ही बार तुमसे अनिश्चित काल के लिए धिक्षा ही रहा हूँ। विदा के मुह में दुबल मोह नदी, मैया, बलवान् प्रेम का पाथेय दो। कहकर पवनंजय ने नीचे झुक प्रहस्त के पैरों की धूल लेकर माथे पर लगा ली। प्रहस्त ने तरत झुककर दोनों हाथों से कुमार को उठा लिया। सिर पर हाथ रखकर वे इतना ही कह सके “जाओ पवन...प्रिया के आँचल में मुक्ति स्वयं साकार होकर तुम्हें मिले...।" ...आँसुओं में डूबती आँखों से प्रहस्त और सैनिक देखते रह गये : दूर पर घोड़े की टापों से उड़ती धूल में, पवनंजय के मुकुट की चूड़ा ओझल होती दिखाई पड़ी...। अश्वारूढ़ पवनंजय, निर्मम और उद्दण्ड, एक ही उड़ान में योजनों लाँच गये।-दूर-दूर तक नजर फेंकी-दिशि-दिशान्तर में कहीं कोई आकर्षण नहीं है, कहीं कोई परिचय या प्रीति का भाव नहीं है। लोक में सत्य की ज्योति कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रही है। सारे विश्वासों के बन्धन जैसे टूट गये। एक गम्भीर अश्रद्धा और विरक्ति से सारा अन्तस्तल विषण्ण हो गया है। मानव को इस पृथ्वी और आकाश की अबहेलना कर, आज वह क्षितिज की नीली सीकल तोड़ेगा...! वहीं मिलेगी. लोक से परे, शून्य वात्यालोक में, आलोक की अखण्ड लौ-सी दीपित वह प्रियतमा। एक नया ही विश्व लिये होगी वा अपनी उठी हुई हथेली पर। उसी विश्व में वह नव-जन्म पाएगा... | वहीं जाकर छपा है उसका सत्य । आसपास की जगती से सत्य की सत्ता ही मानो निःशेष हो गयी है। उसके जीवन को आश्रय देने की शक्ति ही मानो इस लोक में नहीं है। भीतर का संवेग और संबेदन और भी तीन हो गया। उद्धत और दुरन्त होकर फिर घोड़े को एड़ दी।-आत्महारा और लत्यहीन तरुण फिर निजीब शून्य में भटक चला। पुराने दिनों की निःसार कल्पना फिर हृदय को मथने लगी। गति के इस नाशक प्रवेग में शरीर पर भी वश नहीं रहा। ___...एकाएक कुमार के हाथ से बल्गा छूट गयो। घोड़ा अपने आप धीमा पड़ चला। अनायास ही आस-पास की धरती पर दृष्टि पड़ी। श्रीहीन और करुणमखी पृथ्वी विरह-विधुरा-सो लेटी है-आकाश के शय्या-प्रान्त में लीन होतो हुई। वृक्षों की 2265 :: मस्तित
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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