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सत्य को स्थान नहीं मिल सका, उसमें लौटकर अब मैं जी नहीं सकूँगा।-इन प्राणों को धारण करनेवालो धरित्री जहाँ गयी है, वहीं जाकर इन्हें अवस्थिति मिल सकेगी। उसे छोड़कर सारी सृष्टि में पवनंजय का जीना कहीं भी सम्भव नहीं है!...जाओ भैया...मैं चला..."
कहकर पवनंजय लौट पड़े और सैनिक को अश्व प्रस्तुत करने की आज्ञा दी। छापटकर प्रहस्त ने पवनंजय को बोह में भर लिया और उनके कन्धे पर माथा डाल बिलख-बिलखकर रोने लगे...
__"...नहीं पवन...नहीं, या नहीं होने दूंगा... | बचपना मत करो मेरे भैया...1 उदयागत अशुभ को झोलकर ही छुटकारा है। तीर्थंकरों और शलाकापुरुषों को भी कर्म में नहीं छोड़ा है तो हमारी क्या बिसात । भव-भव के प्रबल अन्तराय ने तुम्हें या आजन्म विच्छेद दिया है।-भाग्य से होड़ बदने की थाल-हठ तुम्हें नहीं शोमती, पवन...!" __ "ओह, प्रहस्त-जमी गौना रहे हो-- मा लो:
कास गुममें से कोस पहा है ? भाग्य से पराजित होकर उसके विधान को छाती पर धारण कर-उसकी दया के अधीन मुझे जीने को कह रहे हो,-प्रहस्त?...और तीर्थंकरों और शलाकापुरुषों ने क्या उस कम के चक्र को लात मारकर नहीं तोड़ दिया। क्या उन्होंने सिर झुकाकर उसे सह लिया? दैव पर पुरुषार्थ की विजय लीला दिखाने के लिए ही वे पुरुष-पुंगव इस धरती पर अवतरित हुए थे। इसी से आज तक मुक्ति-मार्ग की लीक अमिट बनी है। वही हमारी आत्मा की पल-पल की पुकार है-उसे दबाकर अकर्मण्य होने की बात तुम कह रहे हो...?
"-मोह मत करो, प्रहस्त, कर सको तो मुझे प्यार करो भैया। हँसते-हँसते मुझे जाने की आज्ञा दो-और आशीर्वाद दो कि लक्ष्मी को पाकर ही मैं फिर तुम्हारे पास लौटूं। किसी प्रवल से प्रबल बाधा के सम्मुख भी मैं हार न मान-मानवी पृथ्वी के अन्तिम छोरों तक मैं अंजना को खोजूंगा |-यदि कुलाचल भी मेरे मार्य की प्रधा बनकर सम्मुख आएँगे, तो उनका भी उच्छेद करूँगा। ग्रह-नक्षत्रों को भले ही अपनी चालें उलटनी पड़ें, पर पवनंजय का मार्ग नहीं रुंधेगा। एक नहीं, सौ जन्मों में सही, पर पनवंजय को उसे पाकर ही विराम है...!
___"...एक जन्म के भाग्य-बन्धन को तोड़कर जो पुरुषार्थ अपनी प्रिया को नहीं पा सकता, निखिल कर्म-सत्ता को जीतकर वह मुक्ति-रमणी के वरण की बात कैसे कर सकता है- यह मेरे अस्तित्व का अनुरोध है, प्रहस्त, इसे दबाकर तुम मुझे जिलाने की सोच रहे हो...?"
एक अनोखी आनन्द-चैदना से बिहल हो प्रहस्त ने बार-बार पवनंजय का लिलार घूम लिया-और हारकर दूर खड़े हो गये। आँसू उनकी आँखों से उफनते हो आ रहे हैं; एकटक वे पवनंजब का उस क्षण का अपूर्य तेजस्वी रूप देख रहे
मुक्तिदूत :: 225