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________________ शाखाओं में एक भी पल्लव नहीं है। पतझर की धूल उड़ाती हवा में पीले पत्ते उड़े रहे हैं। दिशाएँ धूसर, और अवसाद से मलिन हैं। दूर की एक शैला-रेखा पर अंजन छाया बनी हो गयी है। ऊपर उसके दूध-पोते शिशु-सा एक बादल-खण्ड पड़ा है। और उससे भी परे किसी तरु के शिखर पर, सान्ध्य-धूप की एक किरण ठहरी है। ...पवनंजय के मन का सारा औद्धत्य और निर्ममता, क्षण मात्र में पिघल चले । एक निगूढ आत्म-वेदना की करुणा से मन-प्रण आविल हो गया। सामने राह के किनारे जाता एक प्रवासो कृषक दिखाई पड़ा। काँधे पर उसके हल हैं, श्रान्त और क्लान्त, पसीने में लथपथ, धूल-भरे पैरों से वह चला आ रहा हैं। कुमार उसके पास जा विनती के स्वर में बोले "हलधर बन्ध ! बहुत थक गये हो। मुझ विदेशी का उपकार करो। लो यह घोड़ा लो-पेस यह मुकुट लो-इसका भार अब मुझसे नहीं ढोया जाता। अपनी पगड़ी और अंगा मुझे दे दो भाई, तुम्हारा बहुत-बहुत कृतज्ञ हूँगा!" हलधर चौंका । समझ गया कि कोई राजपुरुप है, पर क्या वह पागल हो गया है? विमूढ़ हो यह ताकता रह गया। क्या बोले, कुछ समझ न आया। सोचा कि शायद आज भाग जागा है। कुमार ने उसके अंगा और पगड़ी उतारकर आप पहन जिये। अपने हाट में उस काम के माथे पर मनट बाँधा, और अपने बहुमूल्य वस्त्राभरण उसे पहना दिय । घोड़े की वल्गा उसके हाथ में थमा दी। "उपकृत हुआ हलधर वन्धु!" कहकर उसके पैर छुए और बोले"अच्छा विदा दो,-कष्ट दिया है, अपना ही अतिथि जान क्षमा कर देना।' कृपक अचरज से आँखें फाड़ देखता रह गया। विदेशी राजपुरुष चल पड़ा अपनी राह पर, और मुड़कर उसने नहीं देखा... | राजमार्ग पर पधनंजय को असंख्य चरण-चिह दीख पड़े।--अनन्त काल बीत गये हैं, कोटि-कोटि मानव इस पथ पर होकर गये हैं। उन पद-चिहों में कुमार को प्रिया के चरणों का आभास हुआ । निश्चय ही इसी राह होकर वह गयी हैं... ! झुककर वे एक-एक चरण-चिह्न का वन्दन करने लगे, चूमने लगे, बलाएँ भरने लगे। प्रिया के अन्वेषण में वातुल और विक्षिप्त राजपुत्र देश-देशान्तर घूम चला। अकिंचन और सर्वहारा वह दिवा-रात्रि चल रहा है-अश्रान्त और अविराम। नाना रूप और नाना वेश धरकर, वह देश-देश में, ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में, हाट में और बार में, नदियों के घाट में प्रिया को खोजता फिरता है। कहीं तपाशगीर बनकर तमाशे दिखाता, कहीं माली बनकर नगर के चौराहों में भाँति-भाँति के पृष्पाभरण बेचता । कभी रत्न अथवा कला-शिल्प की वस्तुएँ लेकर राजअन्तःपुरों में पहुँच जाता। रानियाँ, राज-वधा और राजकन्याएँ, इस मनमोहन और आवारा कलाकार को देखकर भौचक रह जाती। उसकी कला-सामग्री यों ही फैली रह जाती और वे मुक्तिदूत :.
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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