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________________ के प्रदीप लगे हैं। एकाएक उनकी दृष्टि अपने प्रियतम और सर्वोच्च कूट अजितंजय पर जा हरी। इतना ऊँचा है वह कूट कि यहाँ दोप नहीं लगाया जा सका है। वहीं तो कंवल वनस्पतियों के अन्तराल में स्वर्ण-जूही-सी गोरी सन्ध्या अभिसार कर रही हैं। उसकी लिलार में शुक्रतारा की बिंदिया सजी है। ऊपर घिरती प्रदोष की गाढ़ नीलिमा में, रात उसके पुक्त केशों-सी अन्तहीन होकर फैल रही है। झुटपुट तारों में ज्जले फूल उसमें फूट रहे हैं। और पक्नंजय की जयश्री वहाँ जाकर, उस अभिसारिका के पैरों में नवीन नूपुर बनकर मुखरित हो उठी। उस झंकार पर दिगंगनाओं ने अपने आंचल खिसकाकर, अनन्त रूपराशियाँ निछावर कर दी। ...पवनंजय की आँखों के सामने रत्नकूट प्रासाद की वह स्फटिक की अटारी खिल उठी। जिस बातायन में वे उस रात बैठे थे, उसी में बैठी अंजना अकेली अपने हाथों से सिंगार-प्रसाधन कर रही है।...शत-शत बसन्तों के सौन्दर्य ने आज उसे नहलाया है। कल्प-सरोवर की कुमुदिनियों ने उसके तनु अंगों में लावण्य और यौवन भरा है। पोशरिया स्वतारोको दुल 44 कपूर-सी अन्चल देह चीदनी छिटका रही है। दूज की विधु-लेखा-सी जिस विरहिणी तापसी को उस रात वह अपनी बाहुओं में न भर सका था, वह आज राका के पूर्ण-चन्द्र-सी अपनी सोलहों कलाओं से भर उठी है!-सामने उसके पड़ा है वह रत्नों का दर्पण । पास ही पड़े स्वर्णिम घुपायन के छिद्रों से कस्तूरी और अगुरु के धूप की धूम्र-लहरें निकल रही हैं। अतिशय मार्दव से देह में एक भंग डालकर, अपने दोनों लीलायित हाथों में विपुल कुन्तलों को उभारती हुई अंजना, गन्ध-धूम्न से उनका संस्कार कर रही है। पैरों के पास खुले पड़े रत्नकरण्डों में नाना शृंगारों की सामग्रियों फैली हैं ...कल्प-कानन के सारे फूलों का मधु लेकर, काम और रति ने सुहाग की शय्या रच दी है। जिस महासमुद्र की लहरों को पवनंजय ने बाँधा था, वही मानो चैदोवा बनकर उस शय्या पर तन गया है। उसी शय्या पर बैठी है यह अक्षय सुहागिनी अंजना, अजितंजय कूट पर प्रतीक्षा की आतुर आँखें बिछाये। उसी के वक्ष में विसर्जित होकर विजेता आज अपनी शेष कामना की मुक्ति पाएगा...! अतुल हर्ष के कोलाहल और जय-ध्वनियों के बीच पक्नंजय को तन्द्रा टूटी। जहाँ तक दृष्टि जाती है, विजयोत्सव में पागल नागरिको का प्रवाह उमड़ता दीख रहा हैं। राजमार्ग के दोनों ओर दूर तक दीप-स्तम्भों की पंक्तियों चली गयी हैं। विपुल गीतबादित्रों की ध्वनियों से दिशाएँ आकुल हैं। विजया के प्रकृत सिंहतोरण में से निकलते ही कुमार ने देखा-सामने हस्ति-दन्त का विशाल जयतोरण रचा गया है। मुक्ता की झालरों और फूलों की बन्दनवारों से वह सजा है। उसके शीर्ष पर चार खण्डों के अलिम्दों और गवाक्षों में से अप्सराओं-सी रूपसियाँ पुष्पों और गन्धचूर्णों की राशियाँ बिखेर रही हैं। शत-शत पृणाल बाहुओं पर आरतियों के स्तवक झूल रहे हैं। कुमार ने पाया कि उन्हीं के हृदय के माधुर्य में से उठ रही हैं, ये सौन्दर्य पुक्तिदूत :: 215
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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