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________________ हृदयेश्वर! लोक-हृदय के सिहासन पर आज नरेन्द्रों को यह सभा इस धर्मपुत्र का अभिषेक करे, वही मेरी कामना है।" कहकर रावण पवनंजय की ओर बढ़ने को उद्यत हुए कि स्वयं पवनंजय अपने आसन से उटकर आगे बढ़ आये, और सहज बिनय से नम्रोभूत हो गये। रावण ने आमेत वात्सल्य से उभरते हृदय से बार-बार उन्हें आलिंगन किया। समस्त नरेन्द्र-मण्डल गद्गद कण्ट से पुकार उठा__ "लोकहदयेश्वर देव पवनंजय को जय! धर्म-चक्री महाराज रावण की जय!" चारों ओर से जयमालाओं और पुष्यों की वर्षा होने लगी। रावण और पवनंजय उसमें ढक गये। दोनों राजपुरुषों ने बार-बार माथा नवाकर राज-चक्र के इस मुक्त हृदयार्पण को बधा लिया। फिर एक बार रावण के इंगित पर समा शान्त हो गयी। तब चक्री ने वरुण को गले लगाकर, उन्हें आज से सामुद्रिक साम्राज्य का प्रतिनिधि घोषित कर दिया। तदुपरान्त समुद्र के शासन-देवी द्वारा प्राप्त अपने अनेक दिव्यास्त्र और रत्न उन्होंने वरुण को समर्पित किये। फिर उनके गले में जयमाला पहनाकर घोषित किया "वरुणराज ने अपने आत्म-देवता की सम्मान-रक्षा के लिए, काल के विरुद्ध खड़े होकर धर्म-युद्ध लड़ा है। उन्होंने त्रिखण्डाधिपति रावण के आतंक की अवहेलना कर सर्व की जन्मजात स्वाधीन सत्ता की स्थापना का श्रेय लिया है। उनके इस अप्रतिम साहस और बीरत्व का मैं अभिनन्दन करता है। प्रेम, अमयदान, साम्य और स्वाधीनता, यही होंगे आज से हमारे राजत्व के चक्र-रत्न, और इन्हीं पायों पर आसीन है धर्मराज का यह सिंहासन...!" फिर एक बार "लोक-हृदयेश्वर देव पवनंजय की जय, धर्म-राजेश्वर महाराज रावण की जय, वीर-कुल-तिलक वरुणराज की जय!"-समुद्र के क्षितिज तक गूंज उटी । तदनन्तर मंगलबादित्रों की धीपी और मधुर ध्वनियों के बीच सभा विसति हो गयी। 31 शरद् ऋतु की सन्ध्या गिरि-मालाओं में नम रही हैं। समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर जिसके यशोगान गूंज रहे हैं, ऐसी जयश्री लेकर पवनंजय आज आदित्यपुर लौट रहे हैं। पावत्य-घाटियाँ सैन्य के अविराम जबनादों और मंगलशंखों से गूंज रही हैं। अपने अम्बरगोचर नामा हाधी पर, सोने की अम्बाड़ी के रेलिंग पर झुककर पवनंजय ने दूर तक दृष्टि डाली। बिजयार्ध के ऊँचे कूटों पर दूर-दूर तक रंग-बिरंगे मणिगोलकों 214 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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