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________________ की शिखाएँ। उनकी आँखों में आत्मदर्शन के आँसू उभर आये झुकी आँखों और जुड़े हाथों से बार-बार उन्होंने उन कुमारिकाओं का बन्दन किया। आज सौन्दर्य अप्राप्त वासना का विष बनकर मन को नहीं रहा है, वह अन्दर अमृत बनकर नितर रहा है। 7 द्वार में से निकलकर जब कुमार का अम्बरगोचर हाथी आगे बढ़ा तो दूर पर आदित्यपुर के भवन और प्रासादमालाएँ सहस्रों द्वीपों की सघन पंक्तियों से उद्भासित दिखाई पड़े। उन झलमलाती बातियों में भवान्तरों की जाने कितनी ही अविज्ञात इच्छाएँ, एक साथ ज्वलित होकर आँखों में नृत्य करने लगीं। उन दीपमालाओं के बीच-बीच में विभिन्न प्रासादशिखरों के अनेक रंगी रत्नी द्वीपों का एक हार-सा दीख रहा है। और तभी कुमार को ध्यान आया उस हार के कौस्तुभ मणि का ! -रत्नकूट प्रासाद के शिखर पर नीली और हरी कान्ति बिखेरते उस शीतल रत्नी- द्वीप को उन्होंने चीन्हना चाहा 1- आँखें फाड़-फाड़कर बार-बार देखा, पर नहीं दिखाई पड़ रही है वह हार की कौस्तुभ मणि -! देखते-देखते कुमार की आँखों में वे दीपावलियाँ करोड़ों उल्कापातों-सी वेग से चक्कर काटने लगीं एक विभ्राट् अग्निकाण्ड में सब कुछ भमक उठा। उनकी छाती में एक बज्रविस्फोट का धमाका सुनाई पड़ा...। और अगले ही निमिष वह सारा दीपोत्सव बुझ गया... । निःसीम अन्धकार का शून्य आँखों के सामने फैल गया । - कुमार ने दोनों हाथों से आँखें मूँद लीं। भीतर पुकारा- "कल्याणी, तुम्हें मिलने का अमित सुख मुझे पागल बनाये दे रहा है मेरी चेतना खोयी जा रही है, और तुम कहाँ भागी जा रही हो?... मुझसे घोरतर अपराध हो गया है। - क्या मैं तुम्हें भूल गया था...सर्वथा भूल गया था...? क्या इन बारह महीनों में तुम्हारी सुध मुझे कभी नहीं आयी...? ओह, मैं विजय के मद में पागल हो गया था!... कौन-सा मुँह लेकर तुम्हारे निकट आ सकूँगा? इसी से विजय की दीपमालाएँ एकाएक बुझ गयी हैं......स्वागत की वह आरती तुमने समेट ली है...। पर ओ करुणामयी, ओ क्षमा, ओ मेरी धरणी, क्या तुम भी मुझसे मुँह मोड़ लोगी? एक बार अपने निकट आ जाने दो, फिर जो चाहे दण्ड दे लेना।" कुमार के हृदय को फिर भीतर से एक ऊष्म स्पर्श ने थाम लिया । ससंज्ञ होकर उन्होंने अपने को स्वस्थ पाया। दीपोत्सव वैसा ही चल रहा था, पर कुमार की आँखें नहीं उठ रही हैं उस ओर । राजांगन में प्रवेश करते ही कुमार ने महावत को कुछ संकेत कर दिया। आसपास के उत्सव, बधाइयाँ, जयकारें और गीतवादित्रों के स्वर पवनंजय के पास नहीं पहुँच पा रहे हैं। उनका समस्त मनप्राण अन्तर के एक अवाह शून्य में गोते लगा रहा है। ... रत्नकूट प्रासाद के द्वार पर आकर पवनंजय का अम्बरगोचर गजराज बैठ गया। शुण्ड उठाकर हाथी ने स्वामी को प्रणाम किया । अम्बाड़ी पर नसैनी लगा दी गयी । ऊपर निगाह डालकर कुमार ने देखा - महल के छज्जों पर दीपावलियाँ वैसी 216 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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