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________________ अनुशासन भंग करने की स्पर्धा कर सकता है? मैं उसे देखना चाहता हूँ... । ठीक उसी क्षण हँसते हुए पवनंजय सम्मुख आ उपस्थित हुए । "आदित्यपुर का युवराज पवनंजय महामण्डलेश्वर को सादर अभिवादन करता कहकर पचनंजय सहज विनय से नत हो गये। भृकुटियों के बल उतरने के पहले ही, रावण के वे कई दिनों के मुदित होट आज बरबस मुसकरा आये। कुमार के माथे पर हाथ रखकर उन्होंने आशीर्वाद दिया और कुशःत पूछी। फिर चकित - विस्मित वे उस दुःसाहसिक राजपुत्र के तेजोदीप्त चेहरे को देखते रह गये, जिसकी सम्मोहिनी भौंहों के बीच जवहेलित अलकों की एक बँधराली लट स्वाभाविक सौ पड़ी थी। रावण कुछ इतने मुग्ध और बेसुध हो रहे कि ऋण भर को अपने प्रचण्ड प्रवा और महिमा का मान उस नहीं रख प्रश्न अध्यर्थन में निरतन्ध होकर खो गया कि कैसे उस उण्ड युवा ने बिना पूर्व सूचना के ठीक महामण्डलेश्वर के सम्मुख आने का दुःसाहस किया? चक्री के उस प्रखर आतंकशाली मुख को यों दिन-सा पाकर पवनंजय मुक्तकरा आये । सहज ही समाधान करते हुए मृद् मन्द स्वर में बोले "महामण्डलेश्वर ! औद्धत्य श्रमा हो । आपके मन की चिन्ता को समझ रहा हूँ । पर निश्चिन्त रहें-- अनायास अभी शान्ति का शंख-सन्धान करने की धृष्टता मुझी से हुई है। यदि शासन-भंग का अपराध मुझसे हुआ हो तो उचित दण्ड दें - यह माथी सम्मुख है। पर इस क्षण वह अनिवार्य जान पड़ा, इसी से आपकाल में ह नियमोल्लंघन मुझसे हुआ है। कृपया, मेरा निवेदन सुन लें, फिर जो दृष्ट दीखे, वही निर्णय दें। तीन खण्ड पृथ्वी के राज राजेश्वर रावण, अपने अधीन इतने विशाल राज-चक्र के रहते इस छोटे से भूखण्ड पर अधिकार करने के लिए स्वयं शस्त्र उठाएँ और दिन-रात युद्धरत रहें, यह मुझे असाध और अशोभन प्रतीत हुआ । समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर जिसकी नीतिमत्ता की कीर्ति गूंज रही है, जिसकी तपश्चर्या से ब्रह्मर्थियों के मस्तक डोल उठे और इन्द्रों के आसन हिल उठे, उस रावण को महानता और गौरव के योग्य बात यह नहीं है ।... यदि आप से वीरेन्द्र और ज्ञानी ऐसा करेंगे, तो लोक में ब्रह्म-तेज और क्षात्रतेज की मर्यादा लुप्त हो जाएगी। राजा तो अबल और अनाथ का रक्षक होता है, और आप तो रक्षकों के भी चूड़ामणि हैं। लंकापुरी के बालक-सा वह वरुणद्वीप आपके प्रहार की नहीं, प्यार की चीज़ होनी थी। जिस चकी के एक शंखनाद और तीर पर दिशाओं के स्वामी उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लेते हैं, वह एक छोटे-से राजवीर और उसकी छोटी-सी धरती को जीतने के लिए अपना साग बल लगा दे, यह व्यंग्य क्यों जन्मा है...? सहस्रों नरेन्द्र जिसके तेज और प्रताप को सहज ही सिर झुकाते हैं, ऐसे विजेता का शस्त्र हो सकती है केवल क्षमा । क्षमा न कर इस छोटे-से राजा को इतने सैन्य के साथ आक्रान्त किया गया है; तब लगता 200 :: मुक्तिदृन
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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