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________________ चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उनका प्रयोजन बहुत गम्भीर और गोपनीय हैं। स्वप्न में प्रकट होकर उनकी कुल-देवी ने उन्हें एक गोपन-अस्त्र दिया है, यही हाथोंहाथ वें रावण को अर्पित किया चाहते हैं; उस आयुध में यह शक्ति हैं कि बिना किसी संहार के सण मात्र में वह सम से निमल कर देता हैं। गा-मन्त्री जानते थे कि वरुणद्वीप के दुग की प्रकृत चहानी दीवारों पर विद्याधरी की सारी विद्या और शास्त्रास्त्र विफल सिद्ध हुए हैं। तब अवश्य ही कोई असाधारण योगायोग है कि आदित्यपुर का राजपत्र एकाएक यह गोपन-अस्त्र लेकर आ पहुँचा हैं। मन्त्री के आश्चर्य और हर्ष का पार नहीं था। तुरन्त इन्होंने पोत-प्रधान को बुलाकर आज्ञा दी कि अगले दिन तड़के ही, महाराज के अपने निजी वेड़ की एक जलवाहिनी, परिकर के कुछ खास व्यक्तियों को लेकर चकी के 'सीमन्धर' नामक महापोत पर जाएगी। उन व्यक्तियों को पोत के ठोक उस द्वार पर उतारा जाए, जहाँ से वे सीधे चक्रेश्वर के पास पहुँच सके। यथासमय समुद्र-तारण पर यान प्रस्तुत रहना चाहिए-आदि। ....समुद्र के क्षितिज पर बाल-सूर्य का उदय हो रहा है। रावण के कछ विश्वस्त गुप्तचरों के संरक्षण में पवनंजय और प्रहस्त को लेकर जलवाहिनी सीमन्धर-पोत के निज-द्वार पर आ पहुंची। चर के नियत संकेत पर पोत के निश्चिह तल में एकाएक एक द्वार खुल पड़ा। आगन्तुकों को भीतर लेकर फिर द्वार बैसा ही बेमालूम बन्द हो गया। आगे-आगे गुप्तचर अपनी आतंक की गरिमा में अभिभूत होकर बेखबर चल रहे थे और पीछे-पीछे पवनंजय प्रहस्त के कन्धे पर हाथ रखकर उनका अनुसरण कर रहे थे। रास्ते में हो पवनंजय ने चरों को बता दिया था कि महाराज के सम्मुख जाने के पहले, वे पोत की आयुधशाला में जाकर युद्ध-सज्जा धारण करेंगे, अतएव पहले उन्हें त्रं आयुधागार में ही पहुंचा दें। उक्त निश्चय के अनुसार पवनंजय और प्रहस्त को आयुधागार में पहुंचाकर, वे चर युद्धस्थिति देखने की उत्सुकता से पोत की खुली कटनी में चले गये । चरों के आदेशानुसार पवनंजय को आबुधागार में प्रवेश करा देन के बाद प्रहरी उस ओर से निश्चिन्त हो गया था। ....सूर्य अपनी सम्पूर्ण किरणों से उद्भासित होकर मंगल के पूर्ण-कलश-सा उदय हो गया।...चक्री के 'सीमन्धर' महापोत को खुली अटा के छोर पर खड़े हो, उदीयमान सूर्य की ओर उद्ग्रीव होकर, पवनंजय ने तीन बार समुद्र की लहरों पर शान्ति का शंखनाद किया...! अथान्त चल रहे निबिड़ युद्ध में धीर-धीरे एक सन्नाटा-सा व्याप गया। रण के उन्माद में वेभान जूझ रहे सैनिकों के हाथ में शस्त्र स्तम्भित होकर तने रह गये- | रावण को किसी गम्भीर दुरभिसन्धि की आशंका हुई। चक्री के धनुष पर चढ़ा हुआ वज्र-बाण, प्रत्यंचा से छूटकर उँगलियों में ढलक पड़ा। क्रोध से उनकी भृकुटियाँ तन गयीं। आग्नेय दृष्टि से मुड़कर पोछ दखा-मानो मृकुटि से ही ललकारा हो कि- कोन है इस पृथ्वी पर जो त्रिखण्डाधिपति रावण का मुश्तिदूत :: 19.
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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