SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है कि दुन्ति विजय-लालसा पराकाष्ठा पर पहुँचकर, स्वर एक बहुत बड़ी और विषम पराजय बन गयीं हैं। अपनी बही सबसे बड़ी और अन्तिम हार, आँखों के सामनं खड़ी होकर, दिन-रात आपकी आत्मा को त्रस्त किये हैं। आप से विजेता की इतनी बड़ी मार ने मेरे मन को वहत सन्तप्त कर दिया है। इसी से एक लाक-पुत्र के नातं, सीधे लोक-पिता के पास अपनी पुकार लेकर चला आया है। निवेदन के शेप में इतना ही कहना चाहता हूँ, कि मेरी माने तो राजा वरुण को अभय दें. आप स्वयं होकर उमे रा का वचन दें, उसके वोरत्व का आभनन्दन करें और लंकापरो लौट जाएं। यही आप-से वीर शिरोमणि के योग्य बात है। लोक-पिता के उस वात्सल्य के सम्माख, व आप ही झुक जाएगा, इलमें तनिक भी सन्देह नहीं है । युद्ध का ही अंग होकर शायद मैं इल भीषण युद्ध का न थाम पाता, इसी से अपने स्वायत्त धर्म-शासन को सर्वोपरि मानकर मैंने यह शान्ति की प्रकार उठायी है। आशा करता है, महामण्डलेश्वर मेरे मन्तव्य को समझ रहे हैं।" देव और दानव जिस महत्ता के अधीन सिर प्रकाय खड़े हैं, पृथ्वी का वही मतिमान अहंकार खण्ड-खण्ड होकर पवनंजय के पैरों में आ गिरा। मूक और स्तब्ध गरावण सिर से पैर तक र सद्भुत गवा रो रेखते रह गये... | या कैसी अन्तर्भेटी चोट है, कि प्रहार के प्रति हइय प्यार से उमड़ आया है। पर प्यार प्रकट करने का साइस नहीं हो रहा है, और क्रोध इस क्षण असम्भव हो गया है। कैसे इस चिदम्बना से निस्तार हो, रावण बड़े सोच में पड़ गये। इस स्थिति के सम्मुख खड़े रहना उन्हें दूभर हो गया। कौशलपूर्वक टाल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं सूझा। किसी तरह अपने को सँभाला। गौरव की एक घायल और कृत्रिम हँसी हंसते हा रावण बोले ___"है...वाचान युवा! जान पड़ता है साथी-सखाओं में खेलना छोड़कर अर्धचक्री रावण को उपदेश देने मले आये हो! इस बालक-से सलोने मुखड़े से ज्ञान और विवेक की ये गु-गम्भोर बातें सुनकर सचमच बड़ी हंसी आ रही है। तुम्हारी यह नादानी मेरे निकट क्रोध की नहीं प्यार की वस्तु है। पर तम्हारा यह दुःसाहस खतरे से खानी नहीं है। उद्दण्ड युवा, सावधान! आदित्यपुर के युवराज को मैंने धर्म और राजनीति की शिक्षा लेने नहीं चलाया, उसे इस युद्ध में सड़ने को न्योता गया है। विलय और वीरत्व की ये लम्बी-चौड़ी भावुक व्याख्याएँ छोटे मुंह बड़ी बात की कल्पना मात्र हैं 1- पहली ही बार शायद युद्ध देखा है, इसी से भयभीत होकर बौखला गये हो, क्यों न? महासेनापति, इस युवा को बन्दी करो। जो भी इसका अपराध क्षमा करने योग्य नहीं, फिर भी इसके अज्ञान पर दया कर और अपने ही राज-परिकर का बालक समझाकर मैं इसे क्षमा करता हूँ। मेरे निज महल के शिखर-कक्ष में इसे बन्दी बनाकर रखा जाए और युद्ध की शिक्षा दी जाए। ध्यान रहे यह कौतकी युवा यदि नितन्ध रस्ता गया, तो निकट आयी हुई बिजय हाथ से निकल जाएगी। बरूगद्वीप के टूटने पाकादूत .: 2।।
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy