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________________ हैं। स्वर्ग की उपपाद शव्या पर जैने अपने जन्म के समय देव जागर तट बैतते हैं, वैसे ही एक सर्वथा नवोन जन्म में जागने की अंगड़ाई भरते हुए कुमार पवनंजय इट बैठे।-तुरत बोले सखे प्रहस्त, महामण्डलेश्वर रावण से जाकर अभी-अभी मिलना होगा।-पहले ही कह चुका हूँ, आहान धर्म और कल्याण का है। मैं बिजय लेने नहीं आया, मैं तो रहा-सहा स्वत्व का जो आभमान है उसे ही हारने आया हूँ। अपने ही भीतर जो शत्रु चोर-सा घुसा बैठा है, उसे ही तो पकड़कर याँध लाना है। कठिन से कठिन कसौटी की धार पर ही वह नग्न होकर सामने आएगा। शस्त्र और सैन्य उसे जीतने में विफल होंगे। उससे भीतर का वह दुर्जेय शत्रु टूटेगा नहीं, उसका बल उलटे बढ़ता ही जाएगा। और विजय यदि पानी है तो अपने ही ऊपर, तव सैन्य को साथ ले जाकर क्या होगा? सेनाओं को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने की आज्ञा दे दो, जब तक हम लौटकर न आएँ अन्तरोप के सैन्य-शिविरों में यदि कोई अशान्ति अथवा कोलाहल हो, शस्त्र भी उठ जाएँ, तब भी हमारे सैन्य निश्चेष्ट और शान्त रहें। उन्हें क्षुब्ध और चंचल जरा नहीं होना है। आवेश और चुनौती कहीं नहीं झलकाना है। बाहर की चिरौरी, छेड़छाड़ अथवा कटुता की अयज्ञा कर उसके सम्पख सर्वथा पौन रहना है। जब तक हमारी नयी आज्ञा न हो, यही हो सेन्य का अनुशासन! - उपसेनापतियों को आज्ञाएँ सनाकर यान पर आओ, हम इसी क्षण उड़कर लंका चलेंगे--1" ...लंका में पहुँचकर पवनंजय को पता लगा कि रावण स्वयं वरुणद्वीप की समुद्र-मेखला में जा उतरे हैं। द्वीप के प्रमुख द्वार की वेदी पर वे स्वयं करुण के सम्मुख जूझ रहे हैं। सहयोगी मित्र और माण्डलीक के नाते लंकापुरी के राज-परिकर में पयनंजय का यथेष्ट स्वागत-सम्मान हुआ। जिस प्रासाद में लहराये गये थे, उसी के एक शिखर पर चढ़कर पवनंजय ने युद्धस्थिति का सिंहावलोकन किया। उन्होंने देखा, वरुणद्वीप के आसपास के जल-प्रदेश में बहुत दूर-दूर तक विद्याधरों और भूमिमोचरां के सैन्य विशाल जहाजी बेड़े डालकर द्वीप पर निरन्तर आक्रमण कर रहे हैं। विद्यत और अग्नि-शस्त्रों की विस्फोटक मारों से जल और आकाश मलिन और क्षुब्ध हो गया है। या तो दानवों की भैरव ललकारें सुन पड़ती हैं, या फिर करते और मरते मानवों की आर्त चीत्कारों से दिगू-दिगन्त त्रस्त हो रहा है। चारों ओर के समुद्र का जल मानव के रक्त से गहरा लाल और काला हो गया है- | ...पवनंजय के पक्ष में एक तीन उद्वेलन और गहरी व्यथा-सी होने लगी। "ओह, क्या यह भी हो सकता है मनुष्य का रूपः-क्यों मनुष्य इतना अज्ञानी और विवश हो गया है कि ऐसी निर्दयतापूर्वक दिन-रात अपनी ही आत्महत्या कर रहा है। इस निरर्थक संसार का कहाँ अन्त है, और क्या है इसका प्रयोजन? इससे मिलनेवाली विजय का क्या मूल्य है कुछ तबलों की महत्त्वाकांक्षाओं और मानतृष्णा की तप्ति के लिए लक्ष-लक्ष अबलों का ऐसा निमम प्रपीड़न और संघात क्यों?-नहीं, 196 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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