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________________ वह नहीं होने देगा यह सब इतनी असाध्य नहीं है यह विवशता।" ...शशिकृत धूम्र का यह पर्वताकार दानय कहाँ से जन्मा है? क्या यही है मनुष्य के पुरुषाघं का श्रेष्ठ परिचय:-आकाश और समुद्र की सनातन शुचिता को नाश, विस्फोट, त्रास और परम से कलंकित कर, क्या मनुष्य उन पर अपना स्वामित्व घोषित किया चाहता है अपने ही स्वजन मनुष्य के रक्त से अपने भाल पर जय का टीका लगाकर, क्या वह अपना विजयोत्सव मना रहा है-? क्या यही हैं उसकी दिग्विजय का चूड़ान्त बिन्द्रा क्या इसी बल को लेकर मनप्य अखण्ड प्रकृति पर अपना निबांध स्वामित्व स्थापित करने का दावा कर रहा है? पर यह विजेता का वरण नहीं है, यह तो बलात्कारी का व्यभिचार है। तब निखिल का अमृत और सौन्दर्य उसे नहीं मिलेगा, मिलेंगे केवल एक विकलांग शव के टुकड़े!-उसी निर्जीव मांस को हृदय से चिपटाकर, मनुष्य अपने आपको अन्य मान रहा है...। ...मनुष्य के पुण्य-ऐश्वर्य, बल-शौर्य, विधा-विज्ञान, उसके पुरुषार्थ और उसकी साधना का क्या यही है चरम रूप-? सहस्रों वर्षों तक इसी रावण ने कितनी ही तपस्याएं की हैं; जाने कितनी विधाओं, विभूतियों और सिद्धियों का वह स्वामी हैं। नियोग से ही तीन खण्ड पृथ्वी का यह अधीश्वर है। अपने नीति-शास्त्र के पाण्डित्य के लिए वह लोक में प्रसिद्ध है। पर इत सारी महिमा और ऐश्वर्य के भीतर वही अहंकार की चिद्रूप प्रेतिनी हंस रही है। जन्म-जन्म की तृष्णा का रक्त उसके होठों पर लगा है और उसको प्यास का अन्त नहीं है। अपनी उपलब्धियों के इस विराट् परिच्छेद के भीतर, इसका स्वामी कहा जानेवाला मनुष्य स्वयं ही इसका बन्दो वन गया है--! कितना दोन-हीन, अवश और दयनीय है वह ? जिन भौतिक शक्तियों और विभूतियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का उसे गर्व है, वह नहीं जानता है कि वह स्वयं उन जड़ शक्तियों का दास हो गया है। अपने ही आत्म-नाश को बह अपना आत्म-प्रकाश समझने की भ्रान्ति में पड़ा है...। ...मनुष्य के पुरुषार्थ और उसकी लब्धियों की ऐसी दुखान्न पराजय देखकर, पवनंजय का समस्त हृदय हाय-हाय कर उठा। फिर एक मर्मान्तक वेदना से ये आकण्ठ भर आये |--उन्हें लगा कि यह रावण की और इन प्रमत्त नरेन्द्रों की ही पराजय नहीं है; यह तो उसकी अपनी पसजय है! समस्त, मानव-भाग्य का यह चरम अपराभ है। उसे देखकर उस मानव-पुत्र की आँखों में लज्जा, करुणा, ग्लानि और आत्म-सन्ताप के आँसू भर आये। ......इस अपराध का उन्मूलन करना होगा। उसके बिना उसके मानवत्व और अस्तित्व का वाण नहीं है।...उसे प्रतीति हो रही है कि उसके जीवन का आयतन जो यह लोक है, उत्तके मूलाधार हिल जुटे हैं। इस महासत्ता को धारण करनेवाले ध्रुव धर्म के केन्द्र से. लोक व्यत हो गया है-हमारी धात्री पृथ्वी और हमारा रक्षक आकाश किस क्षण हमारे भक्षक बनकर हमें लोल जाएंगे; इसका कुछ भी निश्चय पम्निदृत :: :
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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