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________________ लौट जाओ--पीछे से आये हो तो पोछे आकर जुड़ जाओ। सामुद्रिक मोरचों पर अभी पर्याप्त सैन्य उपस्थित हैं। और यहाँ से माँग आये भी तो जो आगे है वे पहले जगांगे..." आदि-आदि। देखते-देखते चारों ओर भृकुटियाँ तन गयीं। बात की बात में आक्रोश और उत्तेजन फॅफकार ठी! परनंजय की नप ओभीर विसतिगों पर ताने और व्यंग्य वरसने लगे। पर पवनंजय जारा विचलित न हुए। निर्विकार और निश्चल, ठीक इसी समुद्र के तट की तरह गम्भीर होकर अपनी मर्यादा पर वे थमे रहे। दोनों हाथों से शान्ति और समाधान का संकेत करते हुए, पवनंजय ने समस्त नरेन्द्र मण्डल के प्रति पाथा झुका दिया और अपने रथ की वलगा मोड़ दी!-उनकी इस हार पर पीछे हो-हांकार का तुमल कोताहल हुआ। पर मन-ही-मन पवनंजय खूब जानते हैं कि उन्होंने जो मागं पकड़ा है उस पर गमन सहज नहीं है। हारों और बाधाओं से वह राह पटी हुई है। ये बाधाएँ तो बहुत तुच्छ हैं। उस राह पर तो पग-पग पर प्राण बिछाकर हो चलना होगा। उनका मन आज अपूर्व रूप से शान्त और सन्तुलित है।। यधास्थान लौटने पर पवनंजय ने सेनाओं को डेरे डालने और पूर्ण विश्राम लेने की आज्ञाएँ सुना दौं। बात की बात में शिविर निर्माण हो गया। कुमार स्वयं भी युद्ध-सञ्जा में ही तल्प पर अधलेटे हो गये कि ज्ञरा पथ की श्रान्ति मिटा लें। पर भीतर संकल्प अधान्त भाव से चल रहा है। उसमें अरुक गति है, विराम नहीं है 1--आत्मस्थ होकर पवनंजय ने सुदूर शून्य में लक्ष्य बाँधा 1 उपरिचेतन में आसीन हो जाने पर, तत्कालीन बहिर्जगत् विस्मृत हो गया। ऊपर जैसे एक हलका-सा तन्द्रा का आवरण पड़ गया। बिन्दा-क्षय की अंजना की बह सानुरोध दृष्टि और फिर एक गम्भोर 'भार से आनत वह कल्पलता, अपने सम्पूर्ण मादय से एकबारगी ही अन्तर में झलक गयी। और अगले ही क्षण उसमें से समुद्र की प्रशान्त सतह सामने खुल पड़ी। थोड़ी देर में पाया कि आप जल के उस अपार विस्तार पर दीर्य डग भरते हुए चल रहे हैं। पैरों तले लहरें स्थिर हो गयी हैं या चंचल हैं, इसका पता नहीं चल रहा है। पर अस्खलित गति से वे उन पर बढ़ते जा रहे हैं । अचानक सामने आकाश से उतरता हुआ एक अपरूप सुन्दर पुवा दीखा। देखते-देखते उसके शरीर की कान्ति से तेज को ज्वालाएँ निकलने लगीं।...युवा सरल कौतुक से नाचता हुआ स्वर्ण-लंका के शिखरों पर छलांग भर रहा है।... और निमिष मात्र में उसके पैरों से निकलती हुई शिखाओं से सोने की लंका धू-धू सुलग उठी। अमित स्वर्ण की राशि गल-गलकर समुद्र की लहरों में तदाकार हो रही हैं...और ऊपर अपनी मुसकान से शीतल कान्ति की किरणें बरसाता हुआ वह अपरूप सुन्दर युवा फिर आकाश में अन्तर्लीन हो गया।...और अन्त में फिर दिखाई पड़ा महाकाश के वक्ष में पड़ा वही स्निग्ध और प्रशान्त सागर का तल...: आँख खुलते ही पवनंजय ने पाया कि पायताने को ओर चौकी पर प्रहस्त बैठे मुक्मित :: I.
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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