SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में सिर उठाये इन्द्रों और माहेन्द्रों के ऐश्वर्य को यह चुनौती दे रही है-माना! पर उसी महासमुद्र की चिर चलता के बीच, अपनी लघुता में निछावर होता हुआ, सोया हो घन वरूणदीप। और किसका घमण्ड है जो महासागर की इन निबन्ध लहरों पर शासन कर सके:-पानी के बुदबुद, इली पानी की इच्छा से उत्पन्न होकर, इसकी महासत्ता पर अपना शासन स्थापित करेंगे? और अपनी विधाओं से समुद्र के देवताओं, दैत्यों और जलचरों को यदि रावण ने वश में किया है, तो उन विद्याओं के बल को भी देख लूंगा-! धर्म के ऊपर होकर कौन-सी विद्याएँ और कौन-से देवता चल सकेंगे? रावण ने जल-देवों को वाँधा है, समुद्र को तो नहीं बाँधा है? यही समुद्र की राशिकृत लहरें होंगी बरुण का परिकर...! अन्तरीप के स्कन्धावार में घुसकर जब पवनंजय के लैन्य ने आगे बढ़ना चाहा, तो अन्य विद्याबरों के सैन्यों में उनकी राह रोक । वनंजय ने आकर, सम्मुख आये राजाओं और सेनापतियों का सविनय अभिवादन किया, और अनुरोध के स्वर में अपना मन्तव्य संक्षेप में जता दिया। उन्होंने बताया कि उनका प्रयोजन यहाँ नहीं हैं। उस सामुद्रिक मोरचे पर, जहाँ रावण और वरुण के बीच युद्ध चल रहा है, वहीं जाकर वे अपना स्कन्धावार याँथेंगे।-संहार बहुत हो चुका है, अब युद्ध को बढ़ाना इप्ट नहीं हैं, हो सके तो जल्दी से जल्दी उसे समेट लेना है। महामण्डलेश्वर रावण का और अन्य सारे राजपुरुषों का कल्याण इसी में है। प्रस्तुत युद्ध के कारणों और पक्षों की विषमता पर विचार करते हुए लग रहा है कि यदि इस विग्रह को बढ़ने दिया गया तो लोक में क्षात्र-धर्म की मर्यादा लुप्त हो जाएगी! चारों ओर आततायियों और दस्युओं का साम्राज्य हो जाएगा। धर्म की लीक मिट जाने से अराजकता फैलेगी।-जन-जन स्वेच्छाचारी हो जाएगा। लोक का जीवन अरक्षित होकर त्राहि-त्राहि कर उठेगा। आत्महित और सर्वहित के बीच अविनामावी सम्बन्ध है। कल्याण का वही मंगलसूत्र छिन्न हो गया है, हो सके तो उसे फिर से जोड़ देना है। उसी में हमारे क्षात्रत्व और राजत्व की सार्थकता है। और यही प्रयोजन लेकर वे सीधे दोनों पक्षों के स्वामियों से मिलना चाहते हैं। इसीलिए मित्र-राजन्यों से उनका करबद्ध अनुरोध है कि वे उन्हें अपने निर्दिष्ट लक्ष्य पर जाने का अवसर दें और प्रेम के इस अनुष्ठान में सहयोगी होकर उनका हाथ बटा-- : पर राजाओं के सम्मुख क्षात्र-धर्म: प्रेम और कल्याण का प्रश्न नहीं है। उनका प्रधान लक्ष्य है, महामण्डलेश्वर रावण के साहाय्य में सबसे आगे दीखकर अपना पराक्रम और प्रताप दिखाना। और जब वे पहले आकर जमे हैं, तो क्यों दे पवनंजय को आगे दीखकर युद्ध के नेतृत्व का श्रेय लेने देंगे।-एक स्वर में सारा राजमण्डल मुकर गया-"नहीं, यह नहीं हो सकता, यह हरगिज़ नहीं हो सकता, यह अनधिकार चेष्टा है, यह समस्त राज-चक्र की अवमानना है, इसमें स्वामी-द्रोह और दभिसन्धि की गन्ध आ रही है। यह सरासर अन्याय विचार है--लौट जाओ, अपने स्थान पर 194 :: पुनित
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy