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________________ हिमगिरि की घाटियों में उमड़ पड़ा। 'देव-पचनंजय' की जय-जयकारों से पर्वतपारियों हिल उटीं। और इसी बीच अपने सतखण्डे रथ के सर्वोच्च खण्ड पर खड़े होकर पवनंजय ने प्रणत हां कैलास को तीन बार प्रणाम किया। फिर दोनों हाथ आकाश में उठाकर पुकारा "कर्म-योगीश्वर भगवान् वृषभदेव की जय, राज-योगीश्वर भगवान भरत की जय..." चौगुने उल्लास और उन्मेष से सैन्य के प्रवाह में यह जय-जयकार गूंजतो ही चली गयी। 29 अनेक देशान्तरों, नदियों और पर्वतों को लांघकर, कई दिनों आद, पवनंजय का सैन्य जलवीचि पर्वत पर आया। पर्वत की सिन्धु-तरंग नामा चूड़ा पर खड़े होकर पवनंजय ने देखा-दूर पर समुद्र में घुस्सा सुझः अतरी वा हा है। हात्र के दक्षिण समुद्र-तट पर वैतादव और विजवार्ध के विद्याधरों की सेनाओं का स्कन्धावार दिखाई पड़ा। पवनंजय के सैन्य का रणवाथ सुनकर, स्कन्धावार में हलचल मच गयी। जो भी वह मित्र राजवियों का मोरचा है और नवागत सैन्य भी उनका मित्र ही है, फिर भी राजा-राजा के बीच जो अहंकारों के अन्तर-विग्रह हैं, आपस के वैर, मात्सर्य और इंष्याएँ हैं, वे भीतर-भीतर कसमसा उठीं। और फिर जैसी कि पूर्व सूचना मिली थी, इस सैन्य के सेनापति हैं देव पवनंजय-जम्बूद्वीप के वे निराले और बदनाम राजपुत्र, जिनको लेकर विचित्र कथाएँ राजघरों में प्रचलित हैं। स्कन्धावार में दबी जबान से व्यंग्य-विनोद होने लगे। अब तक के मन में छुपे हुए दावघात, अकारण मुंह पर आने लगे। स्वागत में यहाँ भी सारे सैन्य का एकत्र रणवाद्य बजने लगा और जयकारें होने लगी। दोनों ओर के रण-बादित्रों और जयकारों में एक अलक्ष्य स्पर्धा की जोश भरी टक्कर होने लगी। कुछ दूर और जाने पर, अपने रथ के सर्वोच्च गवाक्ष पर चढ़कर पवनंजय ने फिर एक बार सिंहावलोकन किया।-सैन्य-शिविरों की रंग-बिरंगी ध्वजाओं, पालों, तोरणों और तम्बुओं से अन्तरोप पटा है। उससे परे की वेला में तुंगकाय युद्धपोतों के मस्तूल और ध्वजाएँ फहराती दीख पड़ीं।-दूर समुद्र में रक्त-पताकाओं और रत्न-शिखरों से पण्डित सोने की लंकापुरी जगमगा रही है। उसी की सीध में बहुत दृर पर दीख रहा है छोटा-सा वरुणद्वीप। समुद्र की विशातता ही उसकी लघु सत्ता का बल है। देखकर पवनंजय का चेहरा आनन्द और सन्तोष से चमक उठा। मन-ही-मन बोले-अपने स्वर्ण-वैभन्न के ज्योत से गविता है यह लंकापुरी...आकाश भुक्तिदूत :: 19.3
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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