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________________ उन्हों का है। हम हैं केवल उस कल्याण-विधान के आज्ञाकारी अनुचर! उससे टूटकर राजा और राज्य के अधिकार का क्या मूल्य रह जाता है और हमारी राजनीति भी तब क्या उस धर्म के अनुशासन से अलग होकर चल सकती है... ? प्रहस्त ने देखा कि जिस प्राण की अतल गहराई से प्रवाही जीवन के सत्य की यह बात कही जा रही है, उस पर तर्क नहीं ठहर सकेगा। नहीं-अब वह और अपने को धोखा नहीं देगा। होनहार क्या है, सो अन्तर्यामी जानें अपना मत उसने समेट लिया - मात्र पवनंजय से अनुशासन-भर वह चाहता है- बोला " अच्छा पवन तव तुम्हारा धर्म-शासन इस प्रस्तुत युद्ध के सम्मुख हमें क्या करने को कहता है ? अपना अन्तिम निर्णय दो, वही आज्ञारूप में सैन्य को सुनाकर, यहाँ से तुरन्त प्रस्थान करना है।" मेरु-अचल निश्चय के स्वर में पवनंजय बोले " रावण महामण्डलेश्वर बने हैं अपने देवाधिष्ठित रत्नों के बल पर साम्राज्य का स्वामित्व भोगने की अहं तृष्णा ही इसके पीछे हैं। सभी राजपुरुष अपनी-अपनी राज्यतृष्णाओं के यश राय को अधीश्वर माने को बाहर हैं। यह धर्म का शासन नहीं है, आतंक का शासन है, स्वार्थी और अहंकारों का संगठन है! लोक-हित और लोक-रक्षा की प्रेरणा इस युद्ध के पीछे नहीं है। यह है केवल आपा-धापी और छीना-झपटी का पाशव-युद्ध । न्याय-अन्याय, नीति- अनीति का भेद यहाँ लोप हो गया है; प्रजा का जीवन, मात्र राजा की वैयक्तिक मानतृष्णा की तृप्ति के लिए शोषण का साधन रह गया है। राजा वरुण ने देवाधिष्ठित रत्नों के अभिमान को ललकारा हैं, आतंक को उसने चुनौती दी है। निर्बल और शोषित होकर जीने से उसने इनकार किया है। एक ओर जम्बू द्वीप का इतना बड़ा नरेन्द्र मण्डल है, और दूसरी ओर है अकेला वरुण। जानता है कि उसने मौत को न्यौता है, पर अहंकार, आतंक और स्वार्थी शोषण के चक्रों को तोड़ने के लिए उसने सिंहासन तो क्या प्राण तक की बाजी लगा दी है। तब मानना ही चाहिए कि मात्र सिंहासन के लोभ से यह ग्रस्त नहीं, अपनी हार-जीत का मोह त्याग, सत्य के लिए लड़ने को वह उद्यत हुआ है । तब पवनंजय इस युद्ध में वरुण के पक्ष पर ही लड़ सकता है, अन्यथा इस युद्ध में उसका कोई प्रयोजन नहीं हो सकता और उसमें भी पक्ष या विरोध व्यक्ति का नहीं है, वह धर्म और अधर्म का है। तब वरुण भी किसी दिन छूट सकता है। रास्ते के मोरचों पर मेरी सेना नहीं ठहरेगी। उस प्रधान रणांगण के बीचोंबीच जाकर हम विराम करेंगे, जहाँ वरुण और रावण आमने-सामने हैं। मुझे उनके बीच खड़े होना है। मेरा निवेदन शस्त्र से नहीं है, मैं पहले मनुष्यों से बात किया चाहता हूँ । शस्त्र तो मात्र अन्तिम अनिवार्यता हो सकती है। सखे प्रहस्त, उठो, निश्चयानुसार सैन्य को प्रस्थान की आज्ञा सुना दो... ।" ... प्रयाग का तूर्य - नाद दिशान्नों तक गूंज उठा। विशाल सैन्य का प्रवाह १४ मुक्ति दूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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