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________________ जीवन को रक्षा सम्भव नहीं हैं। नहीं जाने दूंगी तब भी यह प्राण त्याग देगी, और जाने दूंगी तो जो भाग्य में लिखा है, वही हो रहेगा। जाने कौन महाहतभागी जीव इसके गर्भ में आया है, जो आप भी ऐसे दारुण कष्ट झेल रहा है, और अपनी जनेता के भी प्राण लेकर ही जो मानो जन्म धारण करेगा। और अंजना से अलग हटाकर, अपने ही लिए अपने जीवन की रक्षा का विचार करने की स्थिति तो अब बहुत पीछे छूट गयी थी। नये सिरे ले आज उसे अपने बारे में कुछ भी सोचना नहीं है। भीतर उसे लगा कि जैसे वह सारा घुमड़ता रुदन एकबारगी ही शान्त हो गया है। आप स्वस्थ होकर थोड़े जल और मिट्टी के उपचार से उसने अंजना को भी स्वस्थ कर लिया। फिर हंसती हुई बोली "जहाँ तेरी इच्छा ही वहीं चल, अंजन! भगवान् मंगलमय हैं। उनकी शरण में रक्षा अवश्य होगी।" ...वह मातंगमालिनी नाम की अटबी, पृथ्वी के पुरातन महावनों में से एक है, जो अपनी अगमता के लिए आदिकाल से प्रसिद्ध है। आस-पास के प्रदेशों में इस वनी के बारे में परमारा मे चली आयी अनेक उन्नकशा पचलित हैं! कहते हैं, उसकी लहों में अनेक अकल्पनीय ऋद्धि-सिद्धि देने वाले रत्नों के कोष, महामृत्यु की आतंक-छाया तले दिवा-रात्रि दीपित हैं। इसमें पाताल-स्पर्शिनी वापिकाएँ हैं, जिनसे निकलकर पृथ्वी के आदिम अजगर, बनस्पतियों की निषिष्ट गन्ध में मत्त होकर लोटते रहते हैं। अनेक विजेता, विद्याधर, किन्नर, गन्धर्व, अपने बलवीर्य और विद्याओं पर गर्वित हो, निधियाँ पाने की कामना लेकर इस वन में घुसे और लौटकर नहीं आये! अंजना और बसन्त ने अपने नामशेष, रक्त भरे आँचल को भूमि पर बिछा कर, मृत्युंजयी जिन को साष्टांग प्रणाम किया। उठते हुए अंजना ने पाया कि टूटकर आये हुए नक्षत्र-सा एक पंछी उसके दायें कन्धे पर आ बैठा है। स्थिर ज्वालाओं-सा बह जगमगा रहा है-देखकर आँखें चैंधियाती हैं। अंजना सिर से पैर तक थरथरा आयी और सहमकर मुंह फेर लिया। पक्षी उड़कर उसी अरण्यवीथी के भीतर, एक ऊँची शाखा पर जा बैठा। अंजना में कम्प और उल्लास की हिलोरें दौड़ने लगीं। उसका सारा शरीर एक अपूर्व रोमांच से सिहर उठा। अनायास अंजना, उस अनल-पंछी को पकड़ने के लिए उस वनवीथी में लपक पड़ी, और उसके ठीक पीछे ही दौड़ पड़ी वसन्त । उनके देखते-देखते दूर-दूर उड़ता हुआ वह पंछी, उस बन के अन्तराल में जाने कहाँ अलोप हो गया।--और उस महाकान्तार में बेतहाशा दौड़ती हुई वे उसे खोजने लगी ...ज्यों-ज्यों वे दोनों आगे बढ़ रही हैं, अँधेरा निबिड़तर होता जाता है।-देखते-देखते आकाश खो गया है, तल असूझ हो रहा है। पग-पग पर भूमि विषमतर हो रही है। झाड़-झंखाड़ों में भालों के फलों-से तीक्ष्ण पत्ते और काँटे चारों ओर से देह में बिंध रहे हैं। पाताल-जलों से सिंचित सहस्त्रावधि वर्षों के पृथ्वी के मुक्तिदूत :: 13
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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