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________________ आदिम वृक्ष, बृहदाकार और उत्तुंग होकर आकाश तक चले गये हैं। उनके विपुल पल्लव-परिच्छेद में सूर्य की किरण का प्रवेश नहीं है। तमसा के इस साम्राज्य में दिन और रात का भेद लुप्त हो गया है। समय का यहाँ कोई परिमाण नहीं, अनुभव भी नहीं । प्रकाण्ड तमिस्रा की गुफ़ाएँ दोनों ओर खुलती जाती हैं। पृथ्वी और वनस्पतियों की अननुभूत शीतल गन्ध में अंजना गौर वसन्त की बहिश्शेतना वो गयी है। केवल अन्तश्चेतन की धाराएँ अपने आप में ही प्रकाशित, इस अभेषता में यही जा रही हैं। आदिकाल के पंजीभूत अन्धकार की राशियाँ चारों ओर विचित्र आकृतियाँ धारण कर नाच रही हैं। अंजना को दीखा, आत्मा के अनन्त स्तरों में छुपे नाना अप्रकट पाप और तृष्णाएँ यहाँ नग्न होकर अपनी लीला दिखा रहे हैं। पर्वत पर तम की अन्ध लहरें बनकर वे आते हैं, और आत्मा पर रह-रहकर आक्रमण कर रहे हैं। ..और तब भीतर अंजना को एक झलक-सी दीख जाती : दीखता कि वह करोड़ों सूर्यों के रथ पर बैठा युवा एक कोमल भ्रूभंग मात्र में उन्हें विदीर्ण कर, अपना रथ अरोक दौड़ाये जा रहा है। उसकी मुसकराहट पथ पर, पैरों के सम्मुख प्रकाश की एक रेखा-सी खींच देती है। ...चलते-चलते अंजना और वसन्त को अकस्मात् अनुभव हुआ कि परों के नीचे से तीक्ष्ण पत्थरों और काँटों से भरी विषम भूमि गायब हो गयी। एक अगाध और सचिक्कण कोपलता में पैर फिसल रहे हैं। त्वचा की एक ऊष्म मांसलता में जैसे वे फँसो जा रही हैं। रलमलाकर बह रेशमीन स्निग्धता शरीर में लहरा जाती है। भीतर जैसे एक उल्का-सी कौंध उठी और उसके प्रकाश में अंजना और वसन्त को दीखा-प्रचण्ड अजगरों की मण्डलाकार राशियों उनके पैरों के नीचे सरसरा रही हैं। चारों ओर उड़ते हुए नाग-नागिनों के जोड़े रह-रहकर देह में लिपट जाते हैं और फिर उड़ जाते हैं। आसपास दृष्टि जाती है-उन तमिस्र की गफ़ाओं में विचित्र जन्तुओं और भयावने पशुओं के झण्ड चीत्कारें करते हुए संघर्ष मचा रहे हैं। उन्हों के बीच उन्हें ऐसी मनुष्याकृतियाँ भी दीखीं जिनके बड़े-बड़े विकराल दाँत मुँह से बाहर निकले हुए हैं, माथे पर उनके त्रिशूल-से तीखे सींग हैं और अन्तहीन कषाय में प्रमत्त वे दिन-रात एक-दूसरे से भिट्टियाँ लड़ रहे हैं। कि अचानक पृथ्वी में से एक सनसनाती हुई फुकार-सी उठी, और अगले ही क्षण स्फूर्त विष की नीली लहरों का लोक चारों ओर फैल गया। सहस्रों फनों वाले मणिधर भुजंग भूगर्भ से निकलकर चारों ओर नृत्य कर उठे। उनके मस्तक पर और उनकी कुण्डलियों में, अद्भुत नीली, पोली और हरी ज्वालाओं से झगर-झगर करते मणियों के पुंज झलमला रहे हैं। उनकी लों में से निकलकर नाना इच्छाओं की पुरक विभूतियाँ, अप्रतिम रूपसी परियों के रूप धारण कर एक में अनन्त होती हुई, अंजना और वसन्त के पैरों में आकर लोट रही हैं; नाना भंगों में अनुनय-अनुरोध का नृत्य रचती वे अपने को निवेदन कर रही हैं। पर उन दोनों बहनों में नहीं जाग रही है [64 :: मुक्तिदृत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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