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________________ कहकर उसने भीलनी से जो कुछ जाना था वह सब बता दिया। अंजना खिलखिलाकर ज़ोर से अट्टहास कर उठी-बोली मनुष्य के लिए अगम्य और वर्जित कहीं कुछ नहीं है, जीजी! इन्हीं मिथ्यात्वों के जालों को तो तोड़ना है। अभी-अभी मैंने सपना देखा है, जीजी, इसी अरण्य को पाकर हमें अपना आवास मिलेगा। इसी अटवी के अन्धकार में पथ की रेखा मैंने स्पष्ट प्रकाशित देखी है।-राह निश्चित वही है, इसमें राई-रत्ती सन्देह नहीं है। देर हो जाएगी जीजी, मुझे मत सेको...” कहकर अंजना ने एक प्रबल वेग के झटके से अपने को वसन्त से छुड़ा लिया और आगे बढ़ गयो । झपटकर वसन्त ने आगे जा, अंजना की राह रोक ली, और भूमि पर गिर पड़ी। उसके पैरों से लिपटकर चारों ओर से अपनी भुजाओं में दृढ़ता से कस लिया और फफक-फफककर रोने लगी। रुदन के ही उद्विग्न स्वर में बोली “नहीं जाने दूंगी...हरगिज़ नहीं जाने दूंगी...ओह अंजनी...मेरी फूल-सी बञ्ची-तुझे क्या हो गया है यह : ऐसी भयानक-ऐसी प्रचण्ड हो उठी है तू...: तेरी सारी हठों के साथ चली हूँ, पर यह नहीं होने दूंगी। देखती आँखों काल की डाढ़ों में तुझे नहीं जाने दूंगी। और फिर भी तू नहीं मानेगी तो प्राण दे दूंगी। फिर अपनी जीजी के शव पर पैर रखकर जहाँ चाहे चली जाना।" अंजना के रोम-रोम में वेग की एक बिजली-सी खेल रही है। पर वसन्त की बात सुनकर वह दुदाम लड़की जैसे एकबारगी ही हतशस्त्र-ती हो गयी। धम् से वह नीचे बैठ गयी और अपनी जीजी को उठाया। फिर आप उसकी गोद में सिर रखकर रो आयी और आँसुओं से उपड़ती आँखों से वसन्त के मुख को पौन-मौन ही बहुत देर तक ताकती रही। फिर अनुरोध कर उठी ___"क्षमा करना जीजी, अपने पापों के इस अतलान्त नरक में घसीट लाया हूँ मैं तुम्हें-! बराबर तुम पर अत्याचार ही करती जा रही हूँ | घोर स्वार्थिनी हैं, अपने हो मोह में अन्धी होकर मैं तुम्हें रसातल में खींच रही है, जीजी।...पर आह जीजी, मेरे प्राण मेरे वश में नहीं हैं...यह कौन है मेरे भीतर जो करोड़ों सयों के रथ पर चढ़कर विद्युत् के वेग से चला आ रहा है...प्राणों को यह दिन-रात खींच रहा है...इसी अरण्यमाला में होकर जाएगा इसका रथ!...तुम कुछ करके मुझे रोक सको तो रोक लो...पर रुकना मेरे बस का नहीं है।...रुककर जैसे रह नहीं सकँगी...: तुम जानो, जीजी..." कहकर अंजना चुप हो गयी। उसकी मुंदी औंखों से आँसू अविराम झर रहे थे। देखते-देखते अंजना के उस मुख पर एक विषम वेदना झलक उठी। वक्ष और पेट तोव्र श्वास के वेग से हिलने लगे। वसन्त ने देखा और भीतर ही भीतर गुन लिया-अंजना को बड़ा ही कठिन दोसेला (गर्मिणी स्त्री की बह विचित्र साध, जिसकी पूर्ति अनिवार्य हो जाती है) पड़ा है। निश्चय ही इस साध की पूर्ति के बिना इसके 143५ :: मुकिदृत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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