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________________ अंजना हाथ का सिरहाना बनाकर तट की शाद्वल हरियाली पर लेट गयी, और तुरन्त उसकी आँख लग गयी। वसन्त को न सोये चैन है न बैठे। अपने अपनत्व को रख सकने का बल उसमें नहीं है। बालक की तरह क्षण मात्र में ही अभय होकर सो गयी इस विपदाग्रस्त, पागल लड़की के चेहरे में, घूम-फिरकर उसकी दृष्टि आ अटकती है। उसकी मन, वचन, कर्म की शक्तियाँ इस लड़की से भिन्न होकर नहीं चल रही हैं। उसकी संज्ञा के एक का झरना उसकी आँखों से रह-रहकर झर रहा है। अंजना की सारी वेदना आकर उसकी आत्मा में पुंजीभूत और सघन हो रही हैं। भीलनी को पाकर वतन्त की जिज्ञासा तीव्र हो उठी, जो भी उसे देखकर भय से वह कॉप-काँप आयी। पर वन की इस भयानक निर्जनता में यह पहली ही मानवी उले दीखी है, सी बरबस उसकी ओर एक आदिम आत्मीयता के भाव से वह खिंची चली गयी। पास पहुँचकर उसने भीलनी को ध्यान से देखा । बुढ़िया के सैकड़ों झुर्रियों वाले मुख पर गुफ़ा-सी ऊँची कोटरों में मशालों-सी दो आँखें जल रही थीं । चट्टान से उसके शरीर में जहाँ-तहाँ झंखाड़ों से सफ़ेद बाल उगे थे। वसन्त ने हिम्मत करके उससे पूछा कि आगे जाने को सुगम रास्ता कहाँ से गया है: भीलनी पहले तो बड़ी देर तक, सिर से पैर तक बसन्त को बड़े गौर से देखती रही। फिर रहस्य के गुरु-गम्भीर स्वर में बोली "इधर आगे कोई रास्ता नहीं है। क्या इधर मौत के मुँह में जाना चाहती हो ? आगे मातंगमालिनी नाम की विकट वनी हैं। महाभयानक दैत्यों और क्रूर जन्तुओं का यह आवास है। मनुष्य इसमें जाकर कोई नहीं लौटा। पुरातन के दिनों में, सुना है, कई शूर नर निधियों की खोज में इस बनी में गये, पर लौटकर फिर वे कभी नहीं आये। भूलकर भी इस राह मत जाना! रास्ता नदी के उस तीर पर होकर है। अपनी कुशल चाही तो उधर ही लौट जाना ।" इतना कहकर वसन्त और कुछ पूछे, इसके पहले ही भीलनी वहाँ से चल दी। द्भुत पग से चलती हुई सल्लकी के प्रतानों में वह तिरोहित हो गयी। थोड़ी ही देर में अंजना की जब नींद खुली तो वह तुरन्त उठ बैठी। गति की एक अनिर्बन्ध हिल्लोल से जैसे वह उछल पड़ी। बिना कुछ बोले ही वसन्त का हाथ खींचकर लामने की उस अरण्यमाला की ओर बढ़ी। तब वसन्त से रहा न गया, झपटकर उसने अंजना को पीछे खींचा "नहीं अंजनी,... नहीं... नहीं... नहीं... नहीं जाने दूँगी इन वनों में आह मेरी छौना सो अंजन, यह क्या हो गया है तुझे? अब तक तेरी राह नहीं रोकी है- पर उस वन में नहीं जाने दूँगी। मनुष्य के लिए यह प्रदेश अगम्य और वर्जित है। इसमें जाकर जीवित फिर कोई नहीं आया। अभी तेरे सो जाने पर उस बूढ़ी भीलनी से मुझे सब मालूम हुआ है । " मुकि :: 41
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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