SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह गाँउ हुई जा रही है। वसन्त के होश-हवास गुम हो गये। ज़बान तालू से चिपक गयी। चारों ओर जन है, जीवन है फिर क्यों हैं वे इतनी जनहीन और असहाय ? मनुष्य मात्र से ऐसो विरक्त क्यों क्या जीवन से रूठकर जिया जा सकेगा? बसम्त के मन में ऐसे ही प्रश्न चिकोटी काट रहे थे। पर उसे वहाँ अकेली छोड़कर वह कैसे जाए और कहाँ जाए: इस अपरिचय के देश में किसे पुकारे? अंजना को एक-दो बार हिला-इलाकर पकारा, उत्तर उ ही दिशा कंबल एक बार समाधान का हाथ उठाकर फिर धरती पर डाल दिया। तब तो वसन्त का धैर्य टूट गया। अंजना के संकेत को यह ठीक-ठीक समझी नहीं। अशुभ को आशंका से वह थर्रा उठी। रह-रहकर कल का वह महादेवी का पदापात उसको छाती में भाले-सा कसक उठता है। उसने सोचा कि कुछ उपाय तरत ही करना चाहिए, नहीं तो देर हो जाएगी। और कुछ नहीं सूझा, तो अंजना को गोद से सरकाकर धरती पर लिटा दिया, और आप उठकर बेतहाशा दोड़ती हई खेत के उस मोड़ तक चली गयी। वहीं से जो पगडण्डी गयी हैं-उसी पर एक बेर्लो से छाया झोंपड़ा उसे दिखा। पास ही खुली बावड़ी में पानी चमक रहा है। और उसी से एक घनी छायावाला फलों का बाग़ है। वैसी ही झपटती हुई वसन्त वापस आयी। अंजना चुप होकर औंधी पड़ी थी। बसन्त ने बहुत सावधानी से धीरे से उठाकर उसे कन्धं पर लिया और बड़ी कटिनाई से किसी तरह उस बाग़ तक ले आयी। किनारे हो बावड़ी की सीढ़ियों तक छाया हुआ अंगूरों का एक लता-मण्डप था। उसी की छाया में लाकर उसने अंजना को लिटा दिया । श्वेत पत्थर को पक्की बावड़ी, विशद, स्वच्छ और चारों तरफ़ से खुली है। किनारे से कुछ ही नीचे तक निर्मल जल उसमें लहरा रहा है। हाथ डुबाकर ही पानी लिया जा सकता है। चारों ओर स्निग्ध शिलाओं के पक्के किनारे बँधे हैं और याग की तरफ़ सीढ़ियाँ बनी हैं। एक किनारे केलों का वन-सा झुक आया हैं और दूसरी ओर इक्ष का खेत आ लगा है। वसन्त ने कछ केले के पत्ते और अंगूरों की लताएँ बिछाकर उस पर हल्का-सा पानी छिड़क दिया, और अंजना को जस पर लिटाकर एक केले के पत्ते से हवा करने लगी। एकमन से वसन्त इष्टदेव का स्मरण कर रही है। उसके देखते-देखते अंजना के मुख पर उद्विग्नता के बजाय एक गहरी शान्ति फैल गयी। थोड़ी देर वह चुपचाप लेटी रही, जैसे नींद आ गयी है। एकाएक उसने आँखें खोली। देखा कि हरियाली का वितान है। चारों ओर एक निगाह उसने देख लिया। फल-भार से नम्र बाग की घनी और शीतल छाया में दूर-दूर तक वृक्षों के तनों की सरणियों हैं। पत्तों में कहीं-कहीं हरियाला प्रकाश छन रहा है। सन्धों में से आयो हुई धूप के कोमल धब्बे कहीं-कहीं बिखरे हैं। जैसे इस कोमल सुनहली लिपि में कोई आशा का सन्देश लिख रहा है। बाहर की तरफ़, सामने दीखा-शाखाओं और सूखे पत्तों से बना एक सुन्दर झोंपड़ा है। उस पर पीले और जामुनी फुलांवाली शाक-सतियों की वेलें आयी हैं। मुक्तिदूत :: 117
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy