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________________ कन्धे पर है। दोनों मनों के तार जैसे एक को सुर में बँधे हैं। एक ही मंगीत की लय पर सधी बे चली जा रही हैं। बोल का अन्तर भी इस क्षण उनके बीच नहीं है। रह-रहकर दोनों की दृष्टि तामने के शुक्र-तारे में अटक जाती है। धीरे-धीरे दिशाएँ उजली होने लगीं, आस-पास का समस्त लोक-चराचर प्रकाशित हो गया। सुदूर पूर्व छोर पर एक ताड़ की वनाली के ऊपर ऊषा की गुलाबी आभा फूट उठी। बसन्त ने देखा कि अंजना के क्लान्त मुख की श्री में एक अद्भुत नवीनता का निखार है। उस चेहरे का भाव निर्विकार और अगम्य है। विरक्ति नहीं हैं, निर्ममता नहीं है। पर मपता और कोमलता भी तो नहीं है। विषाद मानी स्वयं ही मुसकरा उठा है। फिर भी उन होठों में कहाँ है राग-अनुराग की रेखा? विशाल स्वर्ण किरीट-सा सूर्य एक पुरातन और घने जटाजालवाले, गृहदाकार बट-वृक्ष के ऊपर से उग रहा था। नीचे उसके हरे-भरे झाड़ों के बीच से, गाँव के उजले, पुते हुए, स्वच्छ घर चमक रहे थे। पक्की सड़क जाने कहाँ छूट गयी थी। जाने कब वे चलती-चलती कच्चे रास्तों पर आ निकली थीं। आल-पास दूर-दूर तक फैले हरियाले खेत सवरे की ताज़ी और शीतल वायु में लहक रहे थे। उनकी नोकों के बीच यह अपार आकाश मानो छोटा-सा कुतुहली बालक बनकर आँखमिचौली खेल रहा है। हरियाली की इस चंचल आभा में उसकी अचल नीलिमा जैसे लहरा रही है। दूर-दूर छिटकी स्निग्ध-छाया अमराइयों और विपुल वृक्ष-यूथों में विश्राम का आमन्त्रण है। खेतों के बीच की विशाल वापिकाओं पर बैल चरस खींच रहे हैं। चावड़ी की मेहराब से कोई-कोई रमणियाँ और ग्राम-कन्याएँ पानी की गागर भरकर निकलती हैं, और खेत के किनारे-किनारे ग्राम की ओर बढ़ रही हैं। धूप काफ़ी चढ़ आयी है। चलते-चलते वसन्त के पैर लड़खड़ाने लगे। साँस । उसकी भर आयी है। पर रुक जाने की और विराम की बात उसके होठों पर नहीं आ पाती है। उसने अंजना की फूलती हुई साँस को अनुभव किया। धूप से चेहरा उसका तमतमा आया है-और सारा शरीर पसीने से लथ-पथ हो गया है। अंजना बेसुध-सी चल ही चल रही हैं। चलते-चलते एकाएक उसने अपना मुँह वसन्त के कन्धे पर डाल दिया। आँखें इसकी मिंच गयीं। साँस उसकी और भी जोर-जोर से उत्तप्त होकर चलने लगी। पैरों में आँटियाँ पड़ने लगौं । वसन्त ने देखा कि उसके सारे अंग ढीले और निश्चेष्ट पड़ गये हैं-उसका समूचा भार उत्ती के ऊपर आ पड़ा है। वह सावधान हो गयी। एक खेत के किनारे की घास में ले जाकर उसने अंजना को अपनी गोद पर लिटा लिया और आँचल से हवा करने लगी। श्वास के प्रबल वेग से अंजना का वह विफूल वक्ष मानो ट्टा पड़ रहा है। और भीतर की किसी अनिवार यन्त्रणा के त्रास से सारा चेहरा देखते-देखते विवर्ण हो उठा। बढ़ती हुई बेचैनी को दबाने के तिए, अपने ही जानते हुए अंगों को अपने भीतर सिकोड़ती हुई [-16 :: मुक्तिदून
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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