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________________ आस-पास सब्जियों की क्यारियाँ हैं। उनके किनारे पपीते के झाड़ों की कतारें खड़ी हैं। झोंपड़े की एक बग़ल में चारों ओर खुली छाजन के तले एक गोशाला है। उनमें बी एक विशाल डोडोस की पुछ सफेद गारे पैरी पाली कर रही हैं। पास ही खड़ा एक नवजात बछड़ा उनींदी आँखों से एकटक अपनी जनेता की ओर देख रहा है। झोंपड़े का आँगन निर्जन है, द्वार बन्द है । जान पड़ता है, वहाँ कोई नहीं है। गोशाले की छाजन और झोंपड़े के बीच की आड़ में एक ग्रामीण रथ की पीठ दीख रही है। ऊपर उसके पीतल का गुम्बद है-और पीठिका में तने हुए रंग-बिरंगे चित्रोंवाले, ऋतुजर्जर पाल की झलक दीख रही है। उसके पास ही छायाबान वाली एक गाड़ी खुली पड़ी है। अंजना ने पाया कि यह मनुष्य का घर है। आस-पास यहाँ सुरक्षा है, गार्हस्थ्य है। सुख-सुविधा और विश्राम का प्रबन्ध है। यहाँ अन्न है, फल-फूल हैं, दूध है - और स्नेह से स्निग्ध जीवन रस चारों ओर बिखरा है। पर अतिरिक्त और अनावश्यक यहाँ कुछ नहीं है। अभिमान और दिखावे का आडम्बर नहीं है। प्रकृति के हृदय से सदा हुआ ही जीवन का एक सहज, सुषम और सुखमय विरामस्थल है। पर जिस घर वह अतिथि बनकर अनायास चली आयी है, उसका द्वार बन्द है। अभ्यर्थना करने के लिए कोई गृह स्वामी यहाँ नहीं है। वह समझ गयी थी कि आपत्ति की घड़ी में निरुपाय बसन्त उसे यहाँ ले आयी है। फिर भी उसे वह अपने को यहाँ ठहरने की अधिकारी नहीं पाती। सप्रश्न आँखों से उसने सामने बैठी वसन्त को देखा। बसन्त की उस मुरझायी मुख-मुद्रा में अभी भी गहरी परेशानी और चिन्तातुरता साफ़ झलक रही है। फिर भी अपने दुखभरे चेहरे पर सायास एक मुसकराहट लाकर बसन्त ने पूछा "अब जी कैसा है, अंजन " " अच्छी हूँ बहन, अपना सारा दुख तो तुम्हें सौंप दिया है, अब मुझे क्या होने को है...?" कहते-कहते अंजना मुसकरा आयी। "अभी भी मुझे इतनी परायी समझती है, अंजनी तो तू जान । - पर तुझसे विलग होकर अब मेरी गति नहीं है। नहीं जानती हूँ कि कैसे वह तुझे समझा सकती हूँ। मेरी उतनी बुद्धि नहीं है।" कहकर एक गहरी निःश्वास छोड़ती हुई वसन्त दूसरी ओर देखने लगी। अंजना बोली कुछ नहीं - चुपचाप एकटक उस वसन्त को करुण आँखों से देखती रही। वसन्त से रहा न गया। पास सरककर उसने अंजना का माथा अपनी गोद पर ले लिया और बोली - "अंजनी, इतनी निर्मम न वन। कुछ तो दया कर अपनी इस अभागिनी जीजी पर! मेरे जी की शपथ है, मुझसे सच सच बता दे क्या कल उस दुष्टा के पदाघात - 148 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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