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________________ लायी। उसने और अंजना ने मुँह हाध धोकर जल पिया। मांजन का प्रश्न इस समय उनके निकर बहुत गौण हो गया है-सो उस और ध्यान तो नहीं गया है। अंजना जय स्वस्थ होकर बैठी थी, तभी वसन्त ने कहा_ "जाती हूँ, बहन, छोड़कर जाते जो टूट रहा है। पर और उपाय हो गया है। लेकिन यहाँ कैसा भय? केवल मन का पोह ही तो है न ।...प्रभु से विनती करना अंजनी कि मनुष्य को यह विवेक दे; और मैं सफल होकर उसका प्रसाद लेकर लौटूं।" _ "प्रभु तुम्हारे साथ हैं, वान-पर वे कहाँ नहीं हैं? घट-घट में वे बसे हैं। पर हमीं उन्हें पहचानने में चूक जाएं तो क्या उन पर अविश्वास कर सकेंगे? मन में फ़िकर मत रखना, मैं यहाँ बहुत सुखी हूँ।...जाओ बहन,..." और जैसे कुछ कहते-कहते अंजना रुक गयी। राष्प-से कछ धुंधली हो आयी, निगह आँखों से यह वसन्त की ओर देखती रह गयी... "चुप क्यों रह गबी अंजन...?" नदी की धारा की ओर देखती हुई अंमना धीरे से बोली "...कुछ नहीं, जीजी, यही कह रही थी कि स्नेह के वश होकर अधीर पत हो जाना। तुम मैं होकर, अंजना ही याचना का आँचल पसारकर, पिता के सम्मुख जा रही है- भूत गत जाना, पहा! प्रहार आई तो उन्हें भी अपनी भिक्षा ही समझकर इस आँचल में समेट लाना। उनकी अवज्ञा पत होने देना। माँ-बाप की दी हुई वह मधुकरी जीवन के पथ में पाथेय ही बनेगी! रोष करने योग्य वह नहीं ___ कहते-कहते वह एकाएक चुप रह गयी। फिर जैसे एक आंसू का चूँट-सा उतार गयी और बोली "क्या इतना ही कहना काफ़ी न होगा, जोजी-कि अंजना कलंकिनी होकर श्वसुर-गृह से निकाल दी गयी है-क्या पिता के चरणों में उसे आश्रय है? अपना सतीत्व सिद्ध करने के लिए उस रात की कथा कहती फिरूं, यह अब नहीं रुषता, जीजी! लगता है कि द्वार-द्वार पर जाकर उनका अपमान कराती फिर रही हूँ! उनके लिए मुझे किसकी साक्षो खोजनी होगी: क्या ऐसे असमर्थ हैं वे कि उन्हें मेरे' होने के लिए प्रमाणों से सिद्ध होना पड़ेगा: थे तो आप हो अपने को एक दिन प्रकट करेंगे।...चाहो तो भले ही इतना कह देना कि-मैं उन्हीं की हूँ-और उनके और मेरे बीच की बात जगत जो जानता है-वही अन्तिम सच नहीं है...!" कुछ देर चुप रहकर फिर अंजना बोली "हाँ, तो लीजी, यही कह रही थी कि प्रश्रय और दया की भीख तो कलंकिनी अंजना को चाहिए। सती को उसको ज़रूरत नहीं है। रक्षा की ज़रूरत तो पापिनी को ही हैं। यदि उसे शरण नहीं मिली, तो फिर उसे वंचित कर, सती बनकर भीख भक्तित :: 37
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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