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________________ मांगने की विडम्बना मुझसे नहीं होगी। इतना हो ध्यान में रहना, जोजी, और कुछ न कहूँगी..." एकटक बसन्त अंजना के उस तेजोद्दीप्त चेहरे को देखती रह गयी 1 फिर धीरे से बोली ___ "भगवान देख रहे हैं, तेरी बहन हो सकने योग्य होने का भरसक प्रयास करूँगो। आगे तो मेरी ही मति काम आएगी। जल्दी ही लौटूंगी बहन ।" कहकर वसन्तमाला धीरे-धीरे चली गयी। सामने नदी किनारे के झाउओं में अवसन्न सन्ध्या की त्रयाएँ घनी हो रही थीं। कहीं-कहीं नदी की सतह पर, मलिन स्वर्णाभा में वैभव बुझ रहा था। मानो पार्थिव ऐश्वर्य अपने गलित मान और नश्वरता का सकरुण आत्म-निवेदन कर रहा हो। कोई-कोई जल-पंछी विचित्र स्वर करते हुए जल पर छाया डालते निकल जाते। नहीं छोड़ा है कहीं उन्होंने अपना पदचित्र । नदी के पार, सन्ध्या के शान्त आलोक में, स्थान-स्थान पर मुनिजन कायोत्सर्ग में लीन हो गये हैं। फिर एक बार झुककर अंजना ने उन्हें प्रणिपात किया और आप भी अपने आसन पर ही सामायिक में मग्न हो गयी। . ..आवेदन के वेदन से सारा प्राण गम्भीर हो गया। प्रतिक्रमण आरम्भ हुआ। आत्मालोचन की विनम्र वाणी भीतर नीरव गँज उटी "ज्ञान में और अज्ञान में होनेवाले मेरे पापों का अन्त नहीं है। इसी से तो भव-सागर में गोते खा रही हूँ। कितने ही जन्म यों निलक्ष्य भटकते बीत गये हैं। बार-बार मैं प्रमाद और मोह के आँचल में अचेत हो जाती हूँ-संज्ञा खो वैठती हूँ। जपने सुख-दुःख, जन्म-मरण की स्वामिनी मैं आप हूँ-पर मैं कहाँ हूँ, तुम ही तो हो: तुम्हें नहीं देख पा रही हूँ, नहीं रख पा रही हूँ अपने पास। इसी से तो बार-बार ये सारी भूलें हो जाती है।" “...यही बल दो प्रभो कि अपने दुखों से अधीर होकर उनका दायित्व औरों पर न डालें । अपना ही कर्मफल जान अपने ही एकान्त में धैर्यपूर्वक उसे सह लें। और सर्थ के कल्याण और मंगल को भावना ही निरन्तर निभा सकूँ। वे जो इस दुःख के निमित्त बने हैं, चाहे वे सास-माता हो, श्वसुर-पिता हो या और कोई हों, वे भी तो जई कर्म के ही वश ऐसा कर रहे हैं। वे उनके वाहक निमित्त मात्र हैं। क्या वे चाहकर ऐसा कर सकते हैं? और मुझे दुःख देकर वे आप भी क्या कम दुखी होंगे? क्या आप ही कोई अपने जाने, अपने को दःख देना चाहेगा? पर वे अज्ञान और लाचारी में ही यह सब कर रहे हैं। संसार-चक्र चलानेवाली दुर्धर्ष कर्मशक्ति उनसे ऐसा करा रही है। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। उनके प्रति कोई अभियोग या अनुयोग मन में न हो, क्रोध-रोष न हो, ग्लाने और घृणा भी न हो। कर सकूँ तो उन्हें प्रेम हो करूँ, ऐसा बल दो नाथ!-अंजनी को छोड़ गये हो तो जहाँ हो, 138.: मुक्तिन
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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