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________________ उस सहज मानवीय संवेदना को देख वह अपना दुःख भूल गयो। अकर के भूमि पर पड़े सिर पर हाथ फेरकर बोली "भैया अकर, तुम्हारा कोई दोष नहीं है।-जाओ अपने कर्तव्य का पालन करो! प्रभु तुम्हारे साथ हों-" तीर के वेग से रथ आदित्यपुर जानेवाले मार्ग पर लौट रहा था। सामने ही पेड़ों की वीथि में होकर एक वन-पथ गया है। उससे कुछ ही दूर जाकर नीलपर्णा नदी मिलती है। उस नदी के एकान्त और शान्त तट पर एक तपोवन है। अभय, निरापद और पावन है वह भूमि। निर्ग्रन्थ, वीतराग तपस्वियों का वह विहारस्थल है। वात्सल्य का ही वहाँ साम्राज्य है। जीव मात्र को यहाँ प्रश्रय है, और सकल चराचर वहाँ निर्भय हैं। पिसी से क तर मायक नहीं है। विधि-निषेध वहाँ नहीं हैं। प्रकृत जीवन की ओर जाने की साधना ही वहाँ मौन-मौन अनाहत चल रही हैं। इसी से वहाँ जीव मात्र का अपना शासन है। किसी का गुण-दोष या छिद्र देखने का वहाँ किसी को अवकाश नहीं है। केबल निर्वसन श्रमण, या भिक्षणियाँ अतिथियों की तरह वहाँ आते-जाते हैं। कभी-कभी कोई विरल जिज्ञास जन भी इधर आ निकलते हैं। मनुष्य-मनुष्य का वहाँ सहज मिलन है, बीच में सन्देह नहीं है, प्रश्न नहीं है। लोक-जनों का उधर विशेष आवागमन नहीं है। वसन्त अंजना को उसी तपोवन के एक भिक्षुणी-आवास में ले गयो । आयास सूना पड़ा था, आश्रयार्थिनी वहाँ कोई न धी। बालकों-से नग्न साधुजन नदी के उस पार विचरते दीख पड़े। कोई योगी किसी शिलातल पर समाधि में मग्न है। तो कोई मुनि किसी दूर के टीले पर अचल खड़े कायोत्सर्ग में तल्लीन हैं। डूबते सूर्य की अन्तिम आभा में उनके मुख की तपःपूत श्री और भी दिव्य हो उठी है। देखकर अंजना भक्ति-भाव से गदगद हो उठी है। रोचाँ-रोयाँ एक अकारण सुख के आँसुओं से भर आबा। युग-युग की बिछुड़न के बाद जैसे किसी परम आत्मीय का मिलन हुआ हो। नदी-तट पर जहाँ खड़ी थी, वहीं आँचल पसारकर अंजना साष्टांग प्रणिपात में नत हो गयी। एक गहरो आत्म-निष्ठा से यह भर उठी है-कि यहीं है वह प्रश्रय जिसे कोई नहीं छीन सकेगा। आवास के दालान में खूटी पर एक मोर-पिछिका पड़ी है। वही लेकर वसन्त ने थोड़ी-सी जगह बुहार ली। ताक पर पड़े दो-एक डाभ के आसन जोड़कर बिछा दिये। उस पर अंजना को सुखासीन कर दिया। वहीं आले में पड़ा एक कमण्डलु उठाकर वसन्त नदी-तट पर चली गयी। कमण्डलु में पड़े छन्ने से छानकर जल भर . 136 :: पक्निदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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