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________________ "सत्य का अन्तिम आधार सदा कोई स्थूल, लोस चीज़ लो नहीं होती जीजी! प्रेम और आत्मा कोई रंग-रूपवाली माण तो नहीं होती है कि चट निकालकर दिखा दें। "उन' पर और अपने ऊपर विश्वास यदि अचल है, तो बाहर का कौन-सा भय और प्रहार है जो मेरा घात कर सकेगा? जो धन वै सौंप गये हैं, उसकी रक्षा करने का बल भी वे आप मुझे दे गये हैं।...केवल एक ही चिन्ता मन को दिन-रात बाँध रही है कि वे किसी दुश्चक्र में न पड़ गये हों। जाते-जाते उनका मन युद्ध से विमुख हो गया था। उनकी इच्छा के विरुद्ध, मैंने ही उन्हें भेजा है। शपथ दी है मैंने कि वे अन्याय के पक्ष में नहीं लड़ेंगे, चाहे वह अपना ही पक्ष क्यों न हो। इसी से रह-रहकर चिन्ता होती है कि किसी गहरे दुश्चक्र में न पड़ गये हों...? मेरो बात को वे कुछ का कुछ न समझ बैठे..." कहते-कहते अंजना की आँखें भर आयौं । वसन्त ने उसे फिर पास खींचकर पुचकार लिया और छाती से लगाकर सान्त्वना देने लगी। ....कानोकान त्यात सारे अन्तःपुर में फैल गयी-राजपरिकर में भी दवे-छुपे चर्चाएँ होने लगी। महादेवी ने सना और सनकर दोनों कानों में उँगलियाँ दे लीं। आँखें जैसे कपाल से बाहर निकल पड़ती थीं। उनके क्रोध और सन्ताप की सीमा नहीं थी। ऐसी आयी है कुलक्षिणी कि पहले तो मुझसे पुत्र छीना, उसके जीवन को नष्ट कर दिया, और उसकी पीठ पीछे कुल की उज्ज्वल कीर्ति में ऐसे भीषण कलंक . की कालिख लगा दी!' स्वयं जाकर बहू से मिलने या उसे बुलवाकर पूछ-ताछ करने का धैर्य राजमाता में नहीं था। जाने या बुलाने की तो बात दूर, इस कल्पना से ही शायद वे सिहर उठतीं। अपनी विश्वस्त गुप्तचरियों को भेजकर ही उन्होंने बात का पक्का पता लगा लिया था। दूसरे, इधर कुछ दिनों से अंजना भी निःशंक होकर प्रातःसायं, देव-मन्दिर में दर्शन करने जाने लगी थी, तब सभी के सम्मुख यह प्रकट थी। अंजना के इस दुःसाहस पर देखनेवालों को भीतर-भीतर अचरज जरूर था, पर यात की गहराई में जाना किसी ने भी उचित नहीं समझा । स्वयं महादेयी ने भी एक दिन छपकर उसे देख लिया । सन्देह का कोई कारण नहीं रह गया! पापी यदि निर्लज्ज होकर प्रकट में घूम रहा है तो क्या कुलीन और सज्जन भी अपनी मर्यादा त्यागकर उसका सामना करें? पाप के स्थूल लक्षण जब प्रकट ही हैं तो उसमें जाँचना क्या रह गया है? पतित तो समाज के निकट घृणा, उपेक्षा और दण्ड का ही पात्र है-उसके साथ सहानुभूति कैसी, सम्पर्क कैसा? यही रही है अब तक कुलीमों की परम्परा! अपनी मर्यादा की लीक लाँघकर, दुराचारी के निकट जाकर उससे बात करना यह सज्जन और कुलीन की प्रतिष्ठा के योग्य बात नहीं है। पर क्या है इन कुलवानों और सजनों के चरित्र और शील की कसौटी, जिस पर इनका न्यायाधिकरण अधिष्ठित है। पाखण्ड, स्वार्थ, शोषण-सबल के द्वारा अबल का निरन्तर पीड़न और दलन । यही पार्थिव सामर्थ्य है उनका सबसे बड़ा चरित्र-बल-जिसकी 126 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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