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________________ "तुम चुप रहती हो, जीजी, पर मैं क्या नहीं समझ रही हूँ? पर विधाता के कौतुक पर अब तो हँसी-ही-हंसी आ रही है। देव-दर्शन के लिए तुम मुझे मन्दिर तक नहीं जाने देती। ऐसे डरकर के दिन चल सकूँगी? मुझे भय भी नहीं है और लज्जा भी नहीं हैं। क्या मुझं इतना हीन होने को कहती हो, जीजी, कि उनकी दी हुई थाती की अवज्ञा करूं? उनके दिये हुए पुण्य को पाप बनाकर दुराती फिरूँ, यह मुझसे नहीं हो सकेगा...!" । ___"पर अंजन, लोक-दुनिया तो यह सब नहीं जानती...।" "हाँ, दुनिया यह नहीं जानती है कि किस रात घे अभागिनी अंजना के महल में आये और कब चले गये। पर उन्हें मुझ तक आने के लिए, या मुझे उनके पास जाने के लिए क्या हर बार, लोकजनों को आज्ञा लेनी होगी?" “पर अंजना, दुनिया तो इतना ही जानती है न, कि कुमार पवनंजय ने अंजना को कभी नहीं अपनाया । उसकी दृष्टि में तुम पहले ही दिन की परित्यक्ता हो। तुम्हारे और उनके बीच की राह सदा के लिए जो बन्द हो गयी थी-इसके परे की यात दुनिया क्या जाने" अंजना के चेहरे पर फिर एक अम्लान हैंसी झर पड़ी "कैसी भोली बातें करती हो, जीजी! इस सबका उपाय ही क्या है? मुझे या तुम्हें घूम-घूमकर क्या इसका विज्ञापन करना होगा और करोगी भी तो क्या दुनिया उसे सच मान लेगी? सच बात तो यह है, जीजी, कि अन्धी लोकदृष्टि यदि मेरे और उनके बीच की राह को देख पाती, तो दुनिया में इतने अनर्थ ही न होते:-पाप और दुराचारी की सृष्टि ही न होती। विधि का विधान ही कुछ और होता। मैं कहूँ, फिर विधि का विधान होता ही नहीं, मनुष्य का अपना ही पांगलिक विघान होता। पर स्थूल लोक दृष्टि पर राग-द्वेषों के आवरण जो पड़े हैं। इसी से तो मानव-मन में अशेष दुख-क्लेशों की वाताएं चिरकाल से चल रही हैं। दिन-रात आत्मा-आत्मा के बीच संघर्ष है। यह सब इसीलिए है कि एक-दूसरे को ठीक-ठीक समझने-जानने की शक्ति हममें नहीं है।" ___ "पर अंजन, मनुष्य की जो विवशता है, उसकी अपेक्षा ही तो जगत् का बाह्य व्यवहार चल सकेगा।" भीतर और बाहर के बीच तो पहले ही खाई है-इस खाई को और बढ़ाए कैसे चलेगा, जीजी? भीतर के सत्य पर विश्वास कर, बाहर की दुनिया में उसके लिए सहना भी होगा। उस सत्य की प्रतिस्ठा करने के लिए, अचल रहकर समभाव से, लोक में प्रचलित मिथ्या को प्रतिरोध देना होगा, खपना होगा। अपने को चराकर भी उस सत्य को प्रकाशित करना होगा!" "पर उस सत्य का आधार ही यदि छिन जाए, तो उसे प्रकाशित कैसे कर सकोगी?" मुक्तिदूत :: 125
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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