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________________ ओट उनका बड़ा-से-बड़ा पाप स्वर्ण और रत्नों की शय्या में प्रमत्त और नग्न लोट रहा है-वह लोक में ऐश्वर्य और पुण्य कहकर पूजा जा रहा है! महादेवी केत्मती ने महाराज को बुलाकर सब वृत्तान्त कहा। पछाड़ खाकर वे धरती पर औंधो गिर पड़ीं और विलाप करने लगी। महाराज की मति को काठ मार गया। उनकी आँखों के आँसू रुक नहीं सके। एक अवश क्रोध से उनके होठ फड़फड़ाने लगे। पुत्र विमुख था, फिर भी उसके प्रति अविश्वास उन्हें नहीं था। उधर वह जब से युद्ध पर गया है, उनके मन में एक नयी आशा बलवती हो रही थी। शायद अब उसका मन फिर जाए। पर भाग्य ने यह दूसरा ही खेल रच दिया। ...विचित्र है कर्मों की लीला-! उनके सतोगुणी मन में अस्पष्ट, जड़ नियति पर क्रोध है;-मनुष्य और उसकी दुर्बलता पर क्रोध उनके बस का नहीं है। रानी रुदन करती-करती उच्च स्वर में राजा की ओर नामिन-सी फुत्कार कर बोली ___ "देख ली अपनी गुणियल बहू को? बड़े गुण गा-गाकर लाये थे!...कुलघातिनी ...पुजम, उसके दुकानों का अन्त नहीं ! राजा पत्थर की तरह अचल हैं, पर भीतर उनके क्रन्दन मचा है। कानों में उनके गूंज रही हैं, लोक-निन्दा की बेधक किलकारियाँ । सत्य उनकी कल्पना से परे था। लाख कुछ हो, पर पुत्र क्या माँ-बाप से छुपा है: और फिर पवनंजय जो कर बैठा है, वह क्या कभी दला है। फिर, बाईस वर्ष बीत गये, कभी कोई बात नहीं हुई। आज उसके पीठ फेरते ही यह सब कसे घट गया? सत्य की जाँच करने को क्या रह जाता है? रानी ने अनेक विलाप-प्रलाप कर राजा की स्वीकृति ले ली : कि पापिन को महल से निकालकर राज्य की सीमा से बाहर कर दें; उसे अपने बाप के घर महेन्द्रपुर भेज दिया जाए। उसके और उसके पितृकुल के लिए इससे अच्छा दण्ट और क्या होगा? उस पुत्र-घातिनी और कुल-घातिनी को एक क्षण भी अब इस राजघराने के आँगन में नहीं रखा जा सकेगा। नहीं तो पाप का यह बोझ वंश को रसातल में ही पहुँचा देगा। अगले दिन सवेरे ही रानी ने रथ लेकर अक्रूर मामा सारथी को बुला भेजा। स्वयं रथ पर चढ़कर फुकारती हुई रत्नकूट प्रासाद पर जा पहुंची। ___ अंजना और वसन्तमाला तब स्वाध्याय करती हुई, तत्त्व-चर्चा में तल्लीन थीं। भीषण आँधी-सी जब राजमाता एकाएक प्रकट हुई, तो अंजना और वसन्त किंकर्तव्यविमूढ़ देखती रह गयीं! रानी अंगारों-सी लाल हो रही हैं, और क्रोध से थरथरा रही हैं। पहले तो दोनों बहनें भयभीत हो सकपका आयीं। फिर अंजना साहस कर पैर छूने को आगे बढ़ी... मुक्तिदूत :: 127
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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