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________________ के निकट अग्रस्तुत है। और कहीं कोई प्रश्न उस वियोग के निमित्त को लेकर मन में होगा भी, तो इस क्षण वह उसके लिए अकल्पनीय हैं। वह वैसी ही गदन झुकाये प्रतिमा-सी बैठी हैं। पवनंजय व्यथित हो उठे। अधीर होकर तीव्र स्वर से बोले मेरे अपराध को मुक्ति दो, अंजन? नहीं तो यह ज्वाला मुझे भस्म कर देगी। मेरे इस मर्म को बींध दो-तोड़ दो अपनी इन मृदुल पगतलियों से... । जन्म-जन्म के इस पाप को अपने चरणों में विसर्जित कर लो, रानी...!" कहते-कहते पवनंजय फिर भर आये और सामने बैठी अंजना के पैरों में फिर सिर डाल दिया। ...पूछो...एक बार तो मुँह खोलकर पूछो...अपने इस पाषाण के पतिदेव से ....कि ऐसा क्या था तुम्हारा अपराध-जिसके लिए ऐसा कड़ा दण्ड उसने तुम्हें दिया है...?" अंजना ने पवनंजय के सिर को एक ओर की गोद पर खींच लिया। आँचल से उनकी आँखें और चेहरा पोंछती हुई बोली "ऐसी बातें मन में लाकर अब और दूर न ठेलो, देव। मैं तो अज्ञानिनी हूँ ....इतना ही जानती हूँ कि तुम्हारी हूँ...आदिकाल से तुम्हारी ही हूँ!...इसी से तो उस दिन उन लहरों के बीच भी तुम्हें पहचान लिया था। कितने ही भवों में कितनी ही बार वियोग और संयोग हुआ है...उसकी कथा तो अन्तर्यामी जानें! दुख और अन्तराय की रात बीत गयी-उसका सोच कैसा? खोकर इसी जीवन में फिर तुम्हें पा गयी हैं, वही क्या कम बात है? दोष किसी का नहीं है। आत्मा के ज्ञानदर्शन पर मोहिनी का आवरण जब तक पड़ा है, तब तक तो यह आवागमन और संयोग-वियोग चलना हो है। पर मिलन का यह दुर्लभ क्षण यदि आ ही गया है, तो इसे हम खो न बैठे। बिगत दुःख-रागों को, क्या इस क्षण भी हम नहीं भूल सकेंगे? ...और कल का किसे पता है...? आज अपने बीच उस आवरण को मत आने दो! आज जो मुहूर्त आ गया है, उसी में क्यों न ऐसे मिल जाएँ--ऐसे कि फिर बिछुड़ना न पड़े..." कहते-कहते अंजना झुककर पवनंजय पर छा गयी "पर अपराध तो मेरा ही है न, अंजन! इसी से तो वह मेरे आड़े आ रहा है। और तुम तक वह मुझे नहीं पहुँचने दे रहा है। तुम चाहे जितना ही मुझे पास क्यों न खींचो, पर मेरे पैरों में जो बेड़ियाँ पड़ी हैं। पहले उन्हें खोलो रानी, तथी तुम्हारे पास मैं पहँच सकूँगा। उसके बिना छुटकारा नहीं..." ___"स्वार्थिनी हूँ, अपनी ही बात कहे जा रही हूँ...बोलो, अपने जी की व्यथा मुझसे कहो।" अंजना के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों से अपने हृदय पर दायकर, एक मुक्तिदूत :: 117
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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