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________________ पवनंजय को एकाएक जब चेत आया तो अनजाने ही उन्होंने सिर उठाया। पाया कि चे बन्दी हैं उन कोमल बोहों में । पुचकारकर, दबाकर फिर शिशु को सहज सुला दिया गया। वहीं से आँखें उठाकर पवनंजय ने ऊपर की ओर देखा । उस सुगोल और स्नेहिल चिबुक के नीचे, कन्धों और वक्ष पर चारों ओर से घिर आये सघन केशों के बीच खुली है वह उज्ज्वल ग्रीवा। उस पर पड़ी हैं तीन बलयित रेखाएँ। अभी-अभी देखे वे सपने मानो उन्हीं रेखाओं में आकर लीन हो गये हैं। उस भव्य-सौन्दर्य गरिमा को उन्होंने जैसे उझककर चूम लेना चाहा।..पर ओह, क्यों है इतनी जल्दी? यही आश्वासन क्या परम ताप्ति नहीं है कि वहाँ लिखा है-मैं तुम्हारी ही हूँ! फिर एक उस सुख की पूजा उसी नी में भाग उठा। ...पसीने में भीग आयी पवनंजय की भुजाओं को सहलाते हुए अंजना बोली"उठो, बाहर हवा में चलें, गरमी सहुत हो रही है। कहकर पचनंजय का हाथ पकड़ वह आगे हो ली। बाहर आकर छत के पूर्वीय झरोखे में, रेलिंग के खम्भों के सहारे चे आमने-सामने बैठ गये। परिमल और पराग से भीनी चाँदनी में उपबन नहा रहा है। आकाशगंगा में जलक्रीड़ा करती तारक कन्याएँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। सामने जा रहा पूर्ण युवा चाँद, चलते-चलते रुक गया। चाँद के बिम्ब में आँखें स्थिर कर पवनंजय विस्मृत-से बैठे रह गये। पहली ही बार जैसे पूर्ण-सौन्दर्य की झलक पा गये हैं। उसी ओर देखते हुए बोले "हाँ बाईस वर्ष पूर्व, ऐसी ही तो वह रात थी मानसरोवर के तट पर। चाँद भी ऐसा ही था और ऐसी ही थी चाँदनी। और लगता है कि तुम भी येसी ही तो हो, कहीं भी तो आयु का क्षत नहीं लगा है। पर उस दिन क्या तुम्हें पहचान सका था? उसी दिन तो भूल हो गयी थी। चेतन और ज्ञान पर गहरे अन्तराय का आवरण जो पड़ा था। इसी से तो ऐसा आत्मघात कर बैठा। सम्मुख आये हुए प्यार के स्वर्ग को अपने ही अहं की ठोकर से मिट्टी में मिला दिया। और आज:...आज भी क्या तुम्हें पहचान पा रहा हूँ? फिर-फिर भूल जाता हूँ...नहीं पा रहा हूँ तुम्हें..." अंजना चौद में खोयी पवनंजय की स्थिर और पगली दृष्टि पर आँखें थमाये चुप बैठी है। उसे कुछ कहना नहीं है, कुछ पूछना नहीं है। कोई अभियोग नहीं हैं। कुमार को वह मौन असह्य हो उठा। दृष्टि फिराकर उन्होंने अंजना की ओर देखा-आवेदन की आँखों से। अंजना की दृष्टि झुक गयी। वह वैसी ही चुप थी। पवनंजय भीतर ही सिप्सकी दबाकर बोले "हुँअ...तो तुम्हें मुझसे कुछ भी पूछना नहीं है?...समझा, तुम्हारा अभियुक्त होने का पात्र भी मैं नहीं हूँ...नहीं, तुम्हारे इस मूक और निरपेक्ष स्वीकार को सहने की शक्ति अब मुझमें नहीं है! उस दिन भी तो मेरी क्षुद्रता, इसी स्थल पर चुक गयी थी। और आज फिर वैसी ही कठोर परीक्षा लोगी?" फिर एक चुप्पी व्याप गयी। जिसे प्यार किया है उसका न्याय-विचार अंजना 116 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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