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________________ साँस में पवनंजय उस अभागी रात की कथा सुना गये। आत्म-निवेदन के शेष में वे बोले ___...मानसरोवर की लहरों पर से, उस महल-अटा पर तुम्हारी पहली झलक देखी, और मैं कालातीत सौन्दर्य का अनुमान पा गया। वहीं अनुमान अभिमान बन बैंठा! मैं आपे से घिर गया। उस अहंकार में उस सौन्दर्य की सन्देश-बाहिका को भी भूल बैठा। उसे ही मैं न पहचान सका । तुलना में विद्युतप्रभ था या और कोई पुरुष होता, उसके प्रति कोई रोष मन में नहीं जागा। रोष तो तुम पर था-तुम पर! इसलिए कि तुम्हें जो अपनी मान बैठा था, सर्वस्व जो हार बैठा था। तुम पर ही जब सन्देह कर बैठा, तो अपना ही विश्वास नहीं रहा। फिर माता-पिता, मित्र-संगी, किसी में भी आश्वासन कैसे खोजता? केवल अपने पुरुषार्थ का अभिमान मेरे पास था। सामने था केवल अथाह शुन्य-मृत्यु-और उसी में भटकते ये सारे वर्ष बिता दिये..." कहकर पवनंजय ने एक गहरी निःश्वास छोड़ी। अंजना बात सुनते-सुनते तल्लीन होकर वर्षों पार की उस रात में पहुँच गयी थी। यह घटना उसकी स्मृति में पूर्ण सजल हो उठी। सुनकर उसके आश्चर्य की सीमा न थी। मानव भाग्य की इस बेबसी पर, जीव के इस अज्ञान पर उसका सारा जन्तःकरण एक सर्वव्यापिनी करुणा से भर आया। गम्भीर स्वर में बोली... ___“अपना ही प्यार जब शत्रु बन बैठा, तो वह मेरे ही तो कर्म का दोष था। मैं अपने ही सुख में ऐसी बेसुध हो रही कि अपने ही सामने होनेवाले तुम्हारे ऐसे घोर अपमान का भान तक मुझे नहीं रहा।...वह मेरे ही प्रेम की अपूर्णता तो थी। घटना तो वह निमित्त मात्र थी, पर आवरण तो भीतर जाने किस भव का पड़ा था। आज भाग्य जागा, कि तुम आये, तुमने परदा उठा दिया। नारी हूँ-इसीलिए सदा की अपूर्ण हूँ न...आओ मेरे पूर्ण पुरुष, मुझे पूर्ण करो! कल्प-कल्प की बिछुड़ी अपनी इस आत्मा को छोड़कर अब चले मत जाना..." अंजना ने अपना एक गाल पवनंजय की लिलार पर रख दिया । सुख से विह्वल होकर पवनंजय बोल उठे "नारी होकर तम अपूर्ण हो, तो पुरुष रहकर मैं भी क्या पूर्ण हो सकँगा? पुरुष और नारी का योनि-भेद तोड़कर ही तो एक दिन हम पूर्ण और एकाकार हो सकेंगे!" राज-द्वार पर दूसरे पहर का मंगल-वाद्य बज उठा! इस बीच जाने कब चतुर बसन्त ने कक्ष में आकर, वहाँ की सारी व्यवस्था को रूपान्तरित कर दिया। बार्षों का ढका वैभव आज फिर निराकरण होकर अपनी पूर्ण दीप्ति से खिल उठा! मणिदीपों की जगमग ने रंगों का मायालोक रच दिया। 118 :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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