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एक समालोचनात्मक अध्ययन
सन्त काव्य में साधना का प्रधान रूप हो गया। अत: सिद्ध साहित्य, नाथपन्थ और सन्त मत एक ही विचारधारा की तीन परिस्थितियाँ हैं।"
डॉ. राजदेवसिंह का कथन है कि – सन्तों के धार्मिक - दार्शनिक शब्दों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उनके द्वारा प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की सबसे बड़ी संख्या योग और तन्त्रों के पारिभाषिक शब्दों की है । अत: निश्चित है कि योग और तन्त्र सन्तों की दार्शनिक विचार-परम्परा घने भाव से सम्बद्ध है। नाथ परम्परा से विकसित होने वाले विभिन्न सन्त सम्प्रदायों का गुह्य योग-साधना से अतीव घना सम्बन्ध है । ' नाथ सम्प्रदाय का सम्बन्ध भारत के अतीव प्राचीन सिद्ध सम्प्रदाय से कहीं न कहीं अवश्य है क्योंकि नाथों की ही तरह सिद्धों का प्रधान लक्ष्य भी मृत्यु को अपवारित करके "अमरता" प्राप्त करना ही है।
नाथमत के सम्बन्ध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के विचार द्रष्टव्य हैदसवीं शताब्दी में बौद्धों, शाक्तों और शैवों का बड़ा भारी समुदाय ऐसा था; जो ब्राह्मण और वेद के प्राधान्य को नहीं मानता था। ' नाथ सम्प्रदाय मूलत: शैवसम्प्रदाय से सम्बद्ध था।' नाथमत को मानने वाली जातियाँ सामाजिक दृष्टि से बहुत नीची मानी जाती है।
हिन्दी सन्त साहित्य पर नाथ सम्प्रदाय के प्रभाव का ऋण मूर्धन्य मनीषियों ने स्वीकार किया है । कतिपय विद्वानों के विचार ध्यातव्य हैं - मध्यकालीन विचारधारा पर नाथ सम्प्रदाय का अक्षुण्ण प्रभाव पड़ा है। हिन्दी का सन्तसाहित्य नाथ सम्प्रदाय का जितना ऋणी है, उतना अन्य किसी सम्प्रदाय का नहीं । कबीर दादू आदि सन्त इन्हीं योगियों की परम्परा में दिखाई पड़ते हैं और अपनी बहुत
1. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ( तृतीय संस्करण) डॉ. रामकुमार वर्मा पृष्ठ 298 2. शब्द और अर्थ : सन्त साहित्य के सन्दर्भ में डॉ.राजदेवसिंह 3. सन्तों की सहज साधना डॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 54 4. वही पृष्ठ 55 5. वही पृष्ठ 59 6. नाथ सम्प्रदाय - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 145-146 7. वही पृष्ठ 3-9 8, वही पृष्ठ 20 -23 9. कबीर की विचारधारा - डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत पृष्ठ 135