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महाकवि भूधरदास :
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था और शिष्य भी । शेष चार को कबीर का गुरुभाई बताया जाता है । "रहस्यत्रयी के टीकाकार ने कबीर, पीपा रमादास (रविदास या रैदास) धन्नो और पद्मावती को स्वामी रामानन्द का शिष्य बताया है -
कबीरश्च रमादास सेना पीपा धनास्तथा ।
,
पद्मावती तदर्धश्च षडेते च जितेन्द्रियाः ।।
इन सन्तों की जीवनी की समीक्षा करते हुए आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि " सम्भव है उक्त सभी सन्त एक ही समय और एक ही साथ ऐसी स्थिति में वर्तमान भी नहीं रहे होंगे, जिससे उनका स्वामी रामानन्द का शिष्य और आपस में गुरुभाई होना किसी प्रकार सिद्ध किया जा सके। 2
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डॉ. पवनकुमार जैन पूर्वोक्त सन्त परम्परा का समर्थन करते हुए भी अपना विशेष मत इस प्रकार व्यक्त करते हैं- “वास्तव में सन्त साहित्य या सन्तों का कोई वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है; क्योंकि उनकी वाणियों और उपदेशों में इतनी अधिक समानता है कि उन्हें किसी वर्ग में स्थापित नहीं किया जा सकता है। स्वयं कबीर ने अपने हाथ से कुछ नहीं लिखा। उनके अनेक भक्तों ने कबीर के नाम से अनेक पदों की रचना की । अधिकांश सन्त बहुत पढ़े लिखे नहीं थे; अतः उनकी वाणियों को अधिक प्रामाणिक न मानकर उनके मतों को ही अधिक प्रमाणित मानना चाहिए। जैसे गुरु की महत्ता, वैराग्य का महत्त्व, संसार की असारता, ईश्वर की एकता, ईश्वर को प्राप्त करने की साधना, निर्गुण ईश्वर की भावना, यौगिक साधना के द्वारा परम शिव या ईश्वर की प्राप्ति आदि । इस आधार पर सन्त परम्परा का प्रारम्भ 1308 अर्थात् 14 वीं शती से माना जा सकता है; क्योंकि इसके पूर्व के सन्त मुख्य रूप से हिन्दी के नहीं हैं।"
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(ङ) सन्त मत पर अन्य प्रभाव या सन्त मत के आधार
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सन्त साहित्य पर उपलब्ध अनेक विद्वानों के विचार एवं अनेक खोजपूर्ण गवेषणाओं के कारण सन्त मत पर अन्य प्रभाव या सन्त मत के आधार पर
1. उ. भा. सं. परम्परा पृष्ठ 224 से उद्धृत
2. उ. भा. सं. परम्परा पृष्ठ 227 से उद्धृत
3. महावीर वाणी के आलोक में हिन्दी का सन्त काव्य-- डॉ. पवनकुमार जैन पृष्ठ 59