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एक समालोचनात्मक अध्ययन
उल्लिखित सन्त लक्षणों तथा आधुनिक हिन्दी समीक्षा में स्वीकृत “सन्त शब्द की जिस पारिभाषिक मर्यादा की छानबीन करते हुए हमने जिन सन्त लक्षणों का निर्धारण किया है, उनको ध्यान में रखकर देखा जाए तो सन्त परम्परा को इतने पीछे नहीं ले जाया जा सकता । ".....वारकरी सन्त नामदेव एवं त्रिलोचन से सन्त परम्परा का सम्बन्ध जोड़ पाना ऐसी स्थिति में सम्भव नहीं है । जहाँ तक सन्त सधना, वेणी और कश्मीरी भक्तिन लल्ला योगिनी या लालदेद का सम्बन्ध है इनके विषय में इतनी क्षीण सूचनाएँ उपलब्ध है कि उन पर से कोई स्थिर मत नहीं बनाया जा सकता।
इस देश में नीची जातियों में उत्पन्न होने वाले तथा वेद, ब्राह्मण और वर्णाश्रम व्यवस्था की प्रामाणिकता पर अविश्वास करने वाले लोग बहुत पुराने जमाने से रहते आए हैं । सिद्ध और नाथ इसी तरह की परम्परा वाले व्यक्ति थे। लेकिन राम-नाम के प्रति आस्था और दाशरथि राम की भगवत्ता के प्रति अनास्था रखने वालों का कोई बहुत पुराना प्रमाण नहीं मिलता। ब्राह्मणश्रेष्ठता में अविश्वास करने वाले, वेद में आस्था न रखने वाले, वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्वीकार करने वाले लोगों की परम्परा इस देश में काफी पुरानी है लेकिन उपलब्ध साहित्य एवं अन्य सम्बद्ध सूचनाओं के हिसाब से दाशरथि राम की भगवत्ता को अस्वीकार करने वाले प्रथम व्यक्ति कबीर थे। कबीर के बाद तुलसी के पहले इस तरह के और भी बहुत सारे संतों का साहित्य हमें मिलता है .... इन सन्तों के आदि पुरुष कबीर थे। कबीर को “आदि सन्त" मानने का प्रचलन भी है।
आदि सन्त कबीर की परम्परा में पड़ने वाले सन्तों में रैदास, धन्ना, पीपा, सेना और कमाल अति प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि कमाल कबीर का पुत्र भी
1. सन्तों की सहज साधना (सन्त परम्परा) हॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 42-43 2. वहीं पृष्ठ 44 3. वही पृष्ठ 44 4. वही पृष्ठ 50
वही पृष्ठ 51 6. वही पृष्ठ 52